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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - एकपदा साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - विराट् सूक्त
    61

    ऊर्ज॒ एहि॒ स्वध॑ एहि॒ सूनृ॑त॒ एहीरा॑व॒त्येहीति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊर्जे॑ । आ । इ॒हि॒ । स्वधे॑ । आ । इ॒हि॒ । सूनृ॑ते । आ । इ॒हि॒ । इरा॑ऽवति । आ । इ॒हि॒ । इति॑ ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ज एहि स्वध एहि सूनृत एहीरावत्येहीति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जे । आ । इहि । स्वधे । आ । इहि । सूनृते । आ । इहि । इराऽवति । आ । इहि । इति ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 2; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऊर्जे) हे बलवती ! (आ इहि) तू आ, (स्वधे) हे धन रखनेवाली ! (आ इहि) तू आ, (सूनृते) हे प्रिय सत्य वाणीवाली ! (आ इहि) तू आ, (इरावति) हे अन्नवाली ! (आ इहि) तू आ, (इति) बस” ॥४॥

    भावार्थ

    सब लोक-लोकान्तर और प्राणी विराट् नाम ईश्वरशक्ति का आश्रय लेकर जीवनधारण करते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(ऊर्जे) ऊर्ज्-अर्शआद्यच्, टाप्। हे बलवति (एहि) आगच्छ (स्वधे) स्वं धनं दधातीति स्वधा, हे धनधारिके (सूनृते) अ० ३।१२।२। सूनृत-अच्। सत्यप्रियवाग्युक्ते (इरावति) इरा, अन्नम्-निघ० २।७। हे अन्नवति (इति) समाप्तौ ॥

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    विषय

    ऊर्छ, स्वधा, सूनुता, इरावती

    पदार्थ

    १. विराट् अवस्था उत्क्रान्त होकर, 'आमन्त्रण' तक पहुँचकर, सचमुच ('विराट्') = "विशिष्ट दीतिवाली' हो जाती है। (सा) = वह विराट् (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई और उन्नत होकर (सा) = वह (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (चतुर्धा) = चार प्रकार से (विक्रान्ता अतिष्ठत्) = विक्रमवाली होकर ठहरी, अर्थात् विशिष्ट दीप्तिवाली शासन-व्यवस्था होने पर सारे वातावरण में चार बातों का दर्शन हुआ, तब (ताम्) = उस विराट् को (देवमनुष्याः अब्रुवन्) = देव और मनुष्य, अर्थात् विद्वान् और सामान्य लोग बोले कि (इयम् एव) = यह विराट् ही (तत् वेद) = उस बात को प्राप्त कराती है, (यत् उभये उपजीवेम) = जिसके आधार से हम दोनों जीते हैं, अत: (इमाम् उपह्वयामहे इति) = इस विराट को हम पुकारते हैं। ज्ञानी व सामान्य लोग अनुभव करते हैं कि यह विराट्-विशिष्ट दीप्तिवाली राष्ट्र-व्यवस्था हमारे जीवनों के लिए आवश्यक पदार्थों को प्राप्त कराती है, अतः देव-मनुष्यों ने (ताम् उपाह्वयन्त) = उस विराट् को पुकारा। हे (ऊर्जे) = बल व प्राणशक्ति देनेवाली विराट् ! (एहि) = तू हमें प्राप्त हो । (स्वधे) = आत्मधारण-शक्तिवाली विराट् ! (एहि) = तू आ। सुनते-हे प्रिय, सत्यवाणि! तू (एहि) = आ और (इरावति) = अन्नवाली विराट् ! (एहि इति) = आओ ही।

     

    भावार्थ

    उत्क्रान्त विराट् स्थिति होने पर देव व मनुष्य अनुभव करते हैं कि अब हम 'बल व प्राणशक्ति-सम्पन्न बन पाएँगे, आत्मधारण के सामर्थ्यवाले होंगे, सर्वत्र प्रिय, सत्यवाणी का श्रवण होगा और सबके लिए अन्न सुलभ होगा।

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    भाषार्थ

    (ऊर्जे) हे बल और प्राण-प्रद अन्नरूप-विराट्, (एहि) तू आ, (स्वधे) हे स्वधारण-पोषण की शक्ति देने वाली विराट् (एहि) तू आ, (सूनृते) हे सत्य और प्रिय-वाक्-रूप विराट् (एहि) तू आ (इरावति) हे विविधान्नोत्पादक जलों वाली विराट (एहि इति) तू आ।

    टिप्पणी

    [उत्क्रान्त-विराट् जब भूमण्डल में चहुदिशि फैल गई (मन्त्र १), तब देवों और मनुष्यों ने अनुभव किया कि हम दोनों के जीवन इसी विराट् पर आश्रित हैं, अतः इस का उन दोनों ने स्वागत करते हुए कहा (मन्त्र ४) कि "ऊर्जे एहि" इत्यादि। अभिप्राय यह कि उत्क्रान्त-विराट् की स्थिर-स्थिति [अतिष्ठत] में चहुंदिशि रहने वाली प्रजाओं में "ऊर्जा" आदि की प्राप्ति हो जाती, न ऊर्जा का अभाव होता, न प्रजाओं पर किसी शत्रु का आक्रमण होता, सब प्रजाएं स्वयं निजधारण-पोषण में स्वतन्त्र होतीं, सर्वत्र प्रिय और सत्य वाक् का प्रसार होता तथा अन्न और जल भी प्रभूत मात्रा में सब को प्राप्त होता है। इरावती= इरा अन्ननाम (निघं० २।७); इरा जलनाम यथा इरावान् समुद्रः" (उणा० २।२९, महर्षि दयानन्द), तथा इरा= water (आप्टे) +वती (मतुप्) "भूमा" अर्थ में]।

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    विषय

    विराट के ४ रूप ऊर्ग, स्वधा, सूनृता, इरावती, उसका ४ स्तनों वाली गौ का स्वरूप।

    भावार्थ

    (ऊर्जे) हे ऊर्जे ! अन्नमयि ! (आ इहि) आ। हे (स्वधे) स्वधे, अन्नमयि शरीर धारण करने में समर्थ (आ इहि) आ। हे (सूनृते) सूनते ! उत्तम शब्दमयी वाणी ! (आ इहि) आ। हे (इरावति) इरावति ! अन्नवति ! (आ इहि) आ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ त्रिपदा अनुष्टुप्। २ उष्णिग् गर्भा चतुष्पदा उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ३ एकपदा याजुषी गायत्री। ४ एकपदा साम्नी पंक्तिः। ५ विराड् गायत्री। ६ आर्ची अनुष्टुप्। ८ आसुरी गायत्री। ९ साम्नो अनुष्टुप्। १० साम्नी बृहती। ७ साम्नी पंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    O Spirit of food, energy and pranic vitality, come. Come Svadha, spirit of wealth and independence. Come Sunrta, spirit and voice of Truth. Come Iravati, bearer of food and water.

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    Translation

    "Come, O vigour (urja); come, O sustenance (svadha); Come, O delight (sunrta); come, O bestower (aravati) of food "

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    Translation

    O strength ! come ; O self-supporting one |! Come ; O good speech ! come ; O food giver or water-giver ! Come. |

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    Translation

    Come, Strength! Come, Wealth! Come, true, lovely Speech! Come, Food.

    Footnote

    God is the Giver of strength, wealth, true instruction and food.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(ऊर्जे) ऊर्ज्-अर्शआद्यच्, टाप्। हे बलवति (एहि) आगच्छ (स्वधे) स्वं धनं दधातीति स्वधा, हे धनधारिके (सूनृते) अ० ३।१२।२। सूनृत-अच्। सत्यप्रियवाग्युक्ते (इरावति) इरा, अन्नम्-निघ० २।७। हे अन्नवति (इति) समाप्तौ ॥

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