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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - साम्न्यनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
    66

    तां धृ॒तरा॑ष्ट्र ऐराव॒तोधो॒क्तां वि॒षमे॒वाधो॑क्।

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । धृ॒तऽरा॑ष्ट्र: । ऐ॒रा॒ऽव॒त: । अ॒धो॒क् । ताम् । वि॒षम् । ए॒व । अ॒धो॒क् ॥१४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां धृतराष्ट्र ऐरावतोधोक्तां विषमेवाधोक्।

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम् । धृतऽराष्ट्र: । ऐराऽवत: । अधोक् । ताम् । विषम् । एव । अधोक् ॥१४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 5; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ताम्) उसको (ऐरावतः) भूमिवालों के स्वभाव जाननेवाले (धृतराष्ट्रः) राज्य रखनेवाले पुरुष ने (अधोक्) दुहा है, (ताम्) उस से (एव) ही (विषम्) विष को (अधोक्) दुहा है ॥१५॥

    भावार्थ

    नीतिकुशल लोग ईश्वरशक्ति से ही विष की विवेचना करते हैं ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(ताम्) विराजम् (धृतराष्ट्रः) धृतं राष्ट्रं येन। राज्यधारकः (ऐरावतः) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इण् गतौ−रन् निपात्यते। इरा मतुप्। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इरावत्-अण्। इरावतां भूमिवतां स्वभाववेत्ता (विषम्) अ० ४।६।१। शरीरनाशकं द्रव्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सर्पों द्वारा विष-दोहन

    पदार्थ

    १. (सा उदक्रामत्) = वह विराट् उत्क्रान्त हुई। (सा सर्पान् आगच्छत्) = वह [सप गती] गतिशील व्यक्तियों को प्राप्त हुई। (ताम्) = उस विराट् को (सर्पाः उपाह्वयन्त) = इन गतिशील पुरुषों ने पुकारा कि (विषवति एहि इति) = [विषम्-जलम्] हे प्रशस्त जलवाली! आओ तो। उत्तम राष्ट्र व्यवस्था में पानी का समुचित प्रबन्ध होता है। (तस्याः) = उस विराट् का (वत्स:) = प्रिय वह क्रियाशील व्यक्ति (तक्षक:) = [तक्षक त्विषेर्वा] ज्ञान की दीप्सिवाला व (वैशालेय:) = उदार चित्तवृत्तिवाला [विशाला का पुत्र] (आसीत्) = था। इसका (पात्रम्) = यह रक्षणीय शरीर (अलाबुपात्रम्) = [लबि अवलंसने] न चूनेवाली शक्ति का पात्र होता है। इसके शरीर से शक्ति का अवलंसन नहीं होता। २. (ताम्) = उस विराट् को (धृतराष्ट्र:) = शरीररूप राष्ट्र का धारण करनेवाले (ऐरावतः) = [इरा-Water] प्रशस्त जलवाले-प्रशस्त जल से शरीर को नीरोग रखनेवाले ने (अधोक्) = दुहा। (तां विषम् एव अधोक्) = उसने प्रशस्त जल का ही दोहन किया। (सर्पा:) = ये क्रियाशील जीवनवाले व्यक्ति (तत् विषम् उपजीवन्ति) = उस जल के आधार से जीवन-यात्रा को सुन्दरता से निभाते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार जल के महत्व को समझता है, वह अपने तथा (उपजीवनीयः भवति) = औरों के लिए जीवन में सहायक होता है।

    भावार्थ

    उत्तम राष्ट्र-व्यवस्था होने पर क्रियाशील व्यक्ति प्रशस्त जल पाकर जीवन को स्वस्थ बना पाते हैं। ये शरीररूप राष्ट्र का उस प्रशस्त जल द्वारा धारण करते हुए औरों के लिए भी सहायक होते हैं।

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    भाषार्थ

    (ताम्) उस विराट-व्यवस्था रूपी गौ को (ऐरावतः) द्रवविषरूपी जलवाले, तथा (धृतराष्ट्रः) सांपप्रकृतिकों के राष्ट्र को धारण करने वाले व्यक्ति ने (अधोक्) दोहा, (ताम्) उस से (विषम् एव) विष को ही (अधोक्) उसने दोहा, दोहरूप में प्राप्त किया।

    टिप्पणी

    [ऐरावतः= "इरा" (जल, अर्थात् द्रवविष)+मतुप्+अण्, अर्थात् द्रवविष का प्रयोक्ता, धृतराष्ट्र। मन्त्र में "राष्ट्र" शब्द का प्रयोग हुआ है। इस से ज्ञात होता है कि यह सर्पराज्य मानुषराज्य हैं कृमि-राज्य नहीं। नागपुर, नागालेण्ड पदों में "नाग" पद का अर्थ है, नाग जाति के मनुष्य न कि सांप।

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    विषय

    विराड् रूप गौ से ऊर्जा, पुण्य गन्ध, तिरोधा और विष का दोहन।

    भावार्थ

    (सा उद् अक्रामत्) वह ऊपर उठी। (सा सर्पान् आअगच्छत्) वह सर्पों के पास आई। (तां सर्पाः विषवति एहि इति उपाह्वयन्त) सर्पों ने उसे ‘हे विषवति आओ’ इस प्रकार सादर बुलाया। (तस्याः) उसका (तक्षकः वैशालेयः वत्सः आसीत्) ‘वैशालेय तक्षक’ वत्स था। (अलाबुपात्रम् पात्रम्) अलाबुपात्र पात्र था। (तां धृतराष्ट्रः ऐरावतः अधोक्) उसको धृतराष्ट्र ऐरावत दोहन किया। (ताम् विषम् एव अधोक्) उससे विष ही प्राप्त किया (तत् विषम् सर्पाः उपजीवन्ति) उस विष के आधार पर सर्प प्राण धारण करते हैं। (यः एवं वेद उपजीवनीयो भवति) जो इस रहस्य को जानता है वह भी दूसरों को जीवन देने में समर्थ—योग्य होता है। काद्रवेयो राजा इत्याह। तस्य सर्पाः विशः। त इम आसते। इति सर्पाश्च सर्पविदश्चोपसमेता भवन्ति। तान् उपदिशति सर्पविद्या वेदः। श० १३। ४। ३। ९॥ उसी विराट् का एक रूप विष है जिसको महानाग प्राप्त करते हैं जो कटुतुम्बी आदि वनस्पतियों या सर्प की विष की थैलियों में प्राप्त होता है। चमकीले शरीर वाले सांप उस विष को प्राप्त करते हैं, सर्प उसपर जीते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। विराट् देवता। १, १३ चतुष्पादे साम्नां जगत्यौ। १०,१४ साम्नां वृहत्यौ। १ साम्नी उष्णिक्। ४, १६ आर्च्याऽनुष्टुभौ। ९ उष्णिक्। ८ आर्ची त्रिष्टुप्। २ साम्नी उष्णिक्। ७, ११ विराड्गायत्र्यौ। ५ चतुष्पदा प्राजापत्या जगती। ६ साम्नां बृहती त्रिष्टुप्। १५ साम्नी अनुष्टुप्। षोडशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    Her, the ruler and protector of the human nation and specialist of the earth and earth products milked to distil the poison, and isolated the poison and discovered the antidote.

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    Translation

    Dhrtarastra (one who has usurped the kingdom), son of Iravan (one having food), milked her; milked only the poison from her.(Dhrtarastrah Airavatah)

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    Translation

    Dhritarashtra serpent which lives in the ocean or sea-land milked this and milked out only poison.

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    Translation

    A good ruler of the State, who knows the requirements of his peasants comprehended her, and drew forth poison.

    Footnote

    Airavata: Who knows the requirements of the pleasants, इरावतां भूमिवतां स्वभाववेता. Dhritrashtra: A nice ruler of the State. (धृतराष्ट्रः) धृतं राष्ट्रं येन। राज्य धारकः For detailed explanation see Pt. Khem Karan Das Trivedi’s commentary on this hymn.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(ताम्) विराजम् (धृतराष्ट्रः) धृतं राष्ट्रं येन। राज्यधारकः (ऐरावतः) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इण् गतौ−रन् निपात्यते। इरा मतुप्। तदधीते तद्वेद। पा० ४।२।५९। इरावत्-अण्। इरावतां भूमिवतां स्वभाववेत्ता (विषम्) अ० ४।६।१। शरीरनाशकं द्रव्यम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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