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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
46
यत्प्र॑त्या॒हन्ति॑ वि॒षमे॒व तत्प्र॒त्याह॑न्ति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । प्र॒ति॒ऽआ॒हन्ति॑ । वि॒षम् । ए॒व । तत् । प्र॒ति॒ऽआह॑न्ति ॥१५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्रत्याहन्ति विषमेव तत्प्रत्याहन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । प्रतिऽआहन्ति । विषम् । एव । तत् । प्रतिऽआहन्ति ॥१५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
[तब] (यत्) नियन्ता [ब्रह्म] (विषम्) विष को (एव) इस प्रकार (प्रत्याहन्ति) हटा देता है, (तत्) विस्तार करनेवाला [ब्रह्म] (प्रत्याहन्ति) हटा देता है ॥३॥
भावार्थ
जब मनुष्य विचारपूर्वक दोष हटाने का प्रयत्न करता है, ब्रह्म की कृपा से उसके सब दोष क्षीण हो जाते हैं ॥३॥
टिप्पणी
२, ३−(न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (च) (मनसा) मननेन (त्वा) त्वां विषम् (प्रत्याहन्मि) प्रतिकूलं नाशयामि (इति) (यत्) यमयतीति। यत्। यम-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।४०। मलोपः। नियन्तृ ब्रह्म (विषम्) दोषम् (एव) एवम् (तत्) म० १। विस्तारकं ब्रह्म अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
विषम्-जलम् [ आपः रेतो भूत्वा० ]
पदार्थ
१. (यस्मै) = जिस (एवं विदुषे) = इसप्रकार जल के महत्त्व को समझनेवाले व्यक्ति के लिए (अलाबुना) = न चूने के द्वारा (तत्) = उस जल का-(आपः रेतो भूत्वा) = रेत:कणों का (अभिषिञ्चेत्) = सेचन करे, अर्थात् यदि प्रभुकृपा से रेत:कणरूप इन जलों का अवलंसन न होकर शरीर में अभिसेचन हो तो वह (प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश करता है (च) = और (न प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश न भी कर पाये तो भी (मनसा) = मन से ('त्वा प्रत्याहन्मि इति') = प्रत्याइन्यात्-तुझे नष्ट करता हूँ, इसप्रकार नष्ट करनेवाला हो। रोग से अभिभूत न होकर वह रोग को अभिभूत करनेवाला बने। मन में स्वस्थ हो जाने' का पूर्ण निश्चय रक्खे। २. (यत् प्रत्याहन्ति) = जो तत्त्व रोगों का नाश करता है (तत्) = वह (विषम् एव) = जलरूप रेत:कण ही उन्हें (प्रत्याहन्ति) = नष्ट करता है। वस्तुतः रेत:कण ही रोगों का नाश करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार (विषम्) = जल-रेत:कणों के महत्त्व को समझा लेता है, (अस्य) = इसके (अप्रियं भातृव्यम्) = अप्रीतिकर शत्रु [रोगरूप शत्रु] को (अनु) = लक्ष्य करके (विषम् एव विषिच्यते) = यह जल शरीर में सिक्त किया जाता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोग-शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं।
भावार्थ
जब मनुष्य रेत:कणों के महत्त्व को समझ लेता है तब इनका अवासन न होने देकर हन्हें शरीर में ही सिक्त करता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोगों का विनाश करते हैं। इनके रक्षण से रोगी का मन रोगाभिभूत नहीं होता।
भाषार्थ
(यत्) जो कि (प्रति आहन्ति) प्रतिफलरूप में मार डालता है (तत्) वह मानो (विषम्) विष को (एव) ही (प्रति आहन्ति) प्रतिफलरूप में मारता है।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि विषप्रयोक्ता को मारना विष को मारनामात्र है, न कि विषप्रयोक्ता को यह समझ कर उसे मार डालें। उसे मारने से समझना चाहिये कि विष को सदा के लिये मार दिया। जब विषप्रयोक्ता न रहा तो विष और विष का प्रयोग भी न रहा]।
विषय
विषनिवारण की साधना।
भावार्थ
(तत्) इसलिये (एवं विदुषे) इस प्रकार के पूर्व सूक्त में कहे विष-दोहन विद्या के रहस्य को जानने वाले (यस्मै) जिस विद्वान् के प्रति सर्प आदि जन्तु (अलाबुना) अपनी विष की थैली में से विष (अभिषिञ्चेत्) फेंके तो वह विद्वान् (प्रत्याहन्यान्) उसका प्रतिकार करने में समर्थ होता है और यदि (न च प्रत्याहन्यात्) वह उसको मारना न चाहे तो (मनसा) मानस बल, संकल्प बल से ही (त्वा प्रति आहन्मि) ‘तेरा मैं प्रतिघात करता हूँ’ (इति) ऐसी प्रबल भावना से ही वह (प्रति आहन्यात्) उसके हानिकारक प्रभाव का निराकरण करे। (यत्) जब (प्रति आहन्ति) वह प्रतिघात करता है (तत्) तब वह (विषम् एव प्रति आहन्ति) विष का ही प्रतिघात किया करता है, विष के घातक प्रभाव को ही नष्ट किया करता है। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है (विषम् एव अस्य अप्रियम् भ्रातृव्यम् अनु विषिच्यते) विष ही उसके अप्रिय शत्रु पर जा पड़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ विराड् गायत्री। २ साम्नी त्रिष्टुप्। ३ प्राजापत्या अनुष्टुप्। ४ आर्ची उष्णिक् अनुक्तपदा द्विपदा। चतुर्ऋचं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Whoever counters and destroys the purveyor of poison, counters and destroys the poison itself.
Translation
When countering thus, he counters that very poison.
Translation
Whatever he wards off, he wards off the poison.
Translation
The Guiding God thus removes, the Vast God removes the weakness of the soul.
Footnote
(यत्) यमयतीति, नियन्तृ ब्रह्म (तत्) तनोतीती तत्। तनुविस्तारे। विस्तारकं ब्रह्म।
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२, ३−(न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (च) (मनसा) मननेन (त्वा) त्वां विषम् (प्रत्याहन्मि) प्रतिकूलं नाशयामि (इति) (यत्) यमयतीति। यत्। यम-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।४०। मलोपः। नियन्तृ ब्रह्म (विषम्) दोषम् (एव) एवम् (तत्) म० १। विस्तारकं ब्रह्म अन्यत् पूर्ववत् ॥
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