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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - द्विपदार्च्युष्णिक् सूक्तम् - विराट् सूक्त
    74

    वि॒षमे॒वास्याप्रि॑यं॒ भ्रातृ॑व्यमनु॒विषि॑च्यते॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षम् । ए॒व । अ॒स्य॒ । अप्रि॑यम् । भ्रातृ॑व्यम् । अ॒नु॒ऽविसि॑च्यते । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषमेवास्याप्रियं भ्रातृव्यमनुविषिच्यते य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषम् । एव । अस्य । अप्रियम् । भ्रातृव्यम् । अनुऽविसिच्यते । य: । एवम् । वेद ॥१५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (विषम्) विष [दोष] (एव) इस प्रकार (अस्य) उस [पुरुष] के (अप्रियम्) अप्रिय (भ्रातृव्यम्) भ्रातृभावरहित [ब्रह्मनिन्दक] को (अनुविषिच्यते) व्याप कर नष्ट कर देता है, (यः) जो (एवम्) ऐसा (वेद) जानता है ॥४॥

    भावार्थ

    विद्वान् का विरोधी ब्रह्मनिन्दक दोषभागी होकर नष्ट हो जाता है, ऐसा मनुष्य को जानना चाहिये ॥४॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ इत्येकोनविंशः प्रपाठकः ॥ इत्यष्टमं काण्डम् ॥ इति श्रीमद्राजाधिराजप्रथितमहागुणमहिमश्रीसयाजीरावगायकवाड़ाधिष्ठितबड़ोदेपुरीगतश्रावणमासपरीक्षायाम् ऋक्सामाथर्ववेदभाष्येषु लब्धदक्षिणेन श्रीपण्डितक्षेमकरणदासत्रिवेदिना कृते अथर्ववेदभाष्येऽष्टमं काण्डं समाप्तम् ॥

    टिप्पणी

    ४−(विषम्) दोषः, इत्यर्थः (एव) एवम् (अस्य) ब्रह्मवादिनः (अप्रियम्) अप्रीतिकरम् (भ्रातृव्यम्) अ० २।१८।१। भ्रातृभावशून्यं ब्रह्मनिन्दकं शत्रुम् (अनुविषिच्यते) कर्तरि कर्मवाच्यम्। व्याप्य विरुन्द्धे पश्चात्, नाशयतीत्यर्थः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    विषम्-जलम् [ आपः रेतो भूत्वा० ]

    पदार्थ

    १. (यस्मै) = जिस (एवं विदुषे) = इसप्रकार जल के महत्त्व को समझनेवाले व्यक्ति के लिए (अलाबुना) = न चूने के द्वारा (तत्) = उस जल का-(आपः रेतो भूत्वा) = रेत:कणों का (अभिषिञ्चेत्) = सेचन करे, अर्थात् यदि प्रभुकृपा से रेत:कणरूप इन जलों का अवलंसन न होकर शरीर में अभिसेचन हो तो वह (प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश करता है (च) = और (न प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश न भी कर पाये तो भी (मनसा) = मन से ('त्वा प्रत्याहन्मि इति') = प्रत्याइन्यात्-तुझे नष्ट करता हूँ, इसप्रकार नष्ट करनेवाला हो। रोग से अभिभूत न होकर वह रोग को अभिभूत करनेवाला बने। मन में स्वस्थ हो जाने' का पूर्ण निश्चय रक्खे। २. (यत् प्रत्याहन्ति) = जो तत्त्व रोगों का नाश करता है (तत्) = वह (विषम् एव) = जलरूप रेत:कण ही उन्हें (प्रत्याहन्ति) = नष्ट करता है। वस्तुतः रेत:कण ही रोगों का नाश करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार (विषम्) = जल-रेत:कणों के महत्त्व को समझा लेता है, (अस्य) = इसके (अप्रियं भातृव्यम्) = अप्रीतिकर शत्रु [रोगरूप शत्रु] को (अनु) = लक्ष्य करके (विषम् एव विषिच्यते) = यह जल शरीर में सिक्त किया जाता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोग-शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं।

    भावार्थ

    जब मनुष्य रेत:कणों के महत्त्व को समझ लेता है तब इनका अवासन न होने देकर हन्हें शरीर में ही सिक्त करता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोगों का विनाश करते हैं। इनके रक्षण से रोगी का मन रोगाभिभूत नहीं होता।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (एवम्) इस प्रकार [इस तथ्य को] (वेद) जानता है (अस्य) इस ज्ञाता के (अप्रियम्) अप्रिय (भ्रातृव्यम् अनु) तथा भ्रातृसम्बन्ध के होते हुए भी सपत्न को (एव) ही (विषम्) विष (विषिच्यते) विशेषतया सींचा जाता है।

    टिप्पणी

    [एवं वेद = मन्त्र (३) में कथित समाधान को जो जान लेता है, वह उसे भी विष देने में शङ्कित नहीं होता, जो कि है तो भ्रातृव्य-सम्बन्ध वाला परन्तु शत्रु हो जाने पर वह प्रियरूप नहीं रहता, अपितु विष के प्रयोग करने में भी वह सकुचाता नहीं। अलाबुना= अथवा "अलम् + अम्बुना, जलेन। समाप्त कर देने वाले विषैले जल द्वारा]।

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    विषय

    विषनिवारण की साधना।

    भावार्थ

    (तत्) इसलिये (एवं विदुषे) इस प्रकार के पूर्व सूक्त में कहे विष-दोहन विद्या के रहस्य को जानने वाले (यस्मै) जिस विद्वान् के प्रति सर्प आदि जन्तु (अलाबुना) अपनी विष की थैली में से विष (अभिषिञ्चेत्) फेंके तो वह विद्वान् (प्रत्याहन्यान्) उसका प्रतिकार करने में समर्थ होता है और यदि (न च प्रत्याहन्यात्) वह उसको मारना न चाहे तो (मनसा) मानस बल, संकल्प बल से ही (त्वा प्रति आहन्मि) ‘तेरा मैं प्रतिघात करता हूँ’ (इति) ऐसी प्रबल भावना से ही वह (प्रति आहन्यात्) उसके हानिकारक प्रभाव का निराकरण करे। (यत्) जब (प्रति आहन्ति) वह प्रतिघात करता है (तत्) तब वह (विषम् एव प्रति आहन्ति) विष का ही प्रतिघात किया करता है, विष के घातक प्रभाव को ही नष्ट किया करता है। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है (विषम् एव अस्य अप्रियम् भ्रातृव्यम् अनु विषिच्यते) विष ही उसके अप्रिय शत्रु पर जा पड़ता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ विराड् गायत्री। २ साम्नी त्रिष्टुप्। ३ प्राजापत्या अनुष्टुप्। ४ आर्ची उष्णिक् अनुक्तपदा द्विपदा। चतुर्ऋचं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    Whoever thus knows this, for him, his negative rivalry, hate and enmity, even poison itself, is destroyed and eliminated. Note: This hymn is a conceptual projection of humanity in all its variety of character, class and organisation from the Utopian state of Viraja, brilliant innocence in the state of nature, upto the world organisation, with full appropriate powers of governance from the local level upto the world state: The ogranisation in ascending order being the family, the community, Sabha, Samiti and Amantrana: in modern version, the Panchayat, Parishad, Assembly, Parliament, Senate and the U.N. (Section 1). All these levels of organisation are sacred reflections of the cosmic power of Divinity (Virat). The universe in Vedic thought is Purusha (Atharva, 19, 6, 4), a living, breathing, self-organising, sovereign system with autonomous constituents at different levels in ascending order from the individual microcosmic level (Ekarat Purusha), through the social organisation (Samrat Purusha), upto the macrocosmic level of the universe (Virat Purusha). Every one from the individual to the universe is a reflection of the Divine Virat, Cosmic Spirit, whatever the character or class of the person. The differences are consequences of the choice and performance of the individuals. In the sukta, the classes are Devas, average humans, Pitaras, Asuras, Rshis, Gandharvas, Apsaras, and Sarpas. All of them, even herbs and trees, reflect the presence of Divine Virat. Similarly Virat reflects in the sanctity of the social organisations from the top world organsiation to the bottom and basic unit, the family and the individual. Virat is the cosmic mother. She grants whatever her children desire and choose to have. Ordinarily, Devas as well as humans need and desire food and energy, they have it. Asuras want natural power and pleasure, they have it. Pitaras want svadha, they get it. Humans want food and farming, they have it. Rshis want divine knowledge, they have the vision. Gandharvas and Apsaras opt for sweets of fragrance, they have it. Others want the secret and unknown, they have it. Serpents want poison, they get it. But we must reject posion because poison destroys, and it destroys, ultimately, the purveyors of poison too.

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    Translation

    That very poison is poured thoroughly into the hated foe of him, ho knows it thus. (Bhratrvyam - anuvisi - cyate.}

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    Translation

    One who knows this pours its venom on his deadly fee.

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    Translation

    He who knows this secret sees, that Vice thus destroys his unfriendly foe and the reviler of God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(विषम्) दोषः, इत्यर्थः (एव) एवम् (अस्य) ब्रह्मवादिनः (अप्रियम्) अप्रीतिकरम् (भ्रातृव्यम्) अ० २।१८।१। भ्रातृभावशून्यं ब्रह्मनिन्दकं शत्रुम् (अनुविषिच्यते) कर्तरि कर्मवाच्यम्। व्याप्य विरुन्द्धे पश्चात्, नाशयतीत्यर्थः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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