अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 21
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पराविराट्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
68
अ॒स्मिन्निन्द्रो॒ नि द॑धातु नृ॒म्णमि॒मं दे॑वासो अभि॒संवि॑शध्वम्। दी॑र्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदा॒यायु॑ष्माञ्ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । इन्द्र॑: । नि । द॒धा॒तु॒ । नृ॒म्णम् । इ॒मम् । दे॒वा॒स॒: । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । आयु॑ष्मान् । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । यथा॑ । अस॑त् ॥५.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्निन्द्रो नि दधातु नृम्णमिमं देवासो अभिसंविशध्वम्। दीर्घायुत्वाय शतशारदायायुष्माञ्जरदष्टिर्यथासत् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन् । इन्द्र: । नि । दधातु । नृम्णम् । इमम् । देवास: । अभिऽसंविशध्वम् । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । आयुष्मान् । जरत्ऽअष्टि: । यथा । असत् ॥५.२१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
हिंसा के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (अस्मिन्) इस [पुरुष] में (नृम्णम्) बल वा धन (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुवाले (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ आयु के लिये (नि दधातु) नियम से स्थापित करे, (देवासः) हे विद्वानो ! (इमम्) इस [ज्ञान-म० २०] में (अभिसंविशध्वम्) सब ओर से मिलकर प्रवेश करो, (यथा) जिससे वह (आयुष्मान्) बड़े जीवनवाला और (जरदष्टिः) स्तुति के साथ प्रवृत्ति वा भोजनवाला (असत्) होवे ॥२१॥
भावार्थ
विद्वान् लोग उपदेश करें जिससे सब मनुष्य ईश्वरमहिमा जानकर बल धन और यश बढ़ावें ॥२१॥
टिप्पणी
२१−(अस्मिन्) मनुष्ये (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (नि) नियमेन (दधातु) स्थापयतु (नृम्णम्) अ० ४।२४।३। बलं धनं वा (इमम्) म० २०। मेथिम्। बोधम् (अभिसंविशध्वम्) म० २० (दीर्घायुत्वाय) चिरजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसंवत्सरयुक्ताय (आयुष्मान्। जरदष्टिः। यथा) म० १९ (असत्) भवेत् ॥
विषय
दीर्घायुत्वाय शतशारदाय
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (अस्मिन्) = इस वीर्यरूप देवमणि में (नृम्णं नि दधातु) = बल स्थापित करे। हे (देवास:) = देववृत्ति के पुरुषो! तुम (इमम्) = इस वीर्यमणि को (अभिसंविशध्वम्) = अभितः सम्यक् आश्रित करो, इसे शरीर में ही व्यास करने का प्रयत्न करो। २. इसलिए तुम इसे शरीर में ही समाविष्ट करो, जिससे यह (शतशारदाय दीर्घायुत्वाय) = सौ वर्षों के दीर्घजीवन के लिए हो। इसे मनुष्य इसलिए धारण करे (यथा) = जिससे वह (आयुष्मान्) = प्रशस्त जीवनवाला व (जरदष्टि:) = पूर्ण जरावस्था को प्राप्त करनेवाला (असत्) = हो।
भावार्थ
प्रभु ने इस वीर्यमणि में बल की स्थापना की है। देववृत्ति के लोग इसका रक्षण करते हैं और प्रशस्त दीर्घजीवनवाले होते हैं।
भाषार्थ
(इन्द्रः) सम्राट् (अस्मिन्) इस पुरुषरत्न सेनाध्यक्ष में (नृम्णम्) बल और धन (निदधातु) निधिरूप में स्थापित करे, (देवासः) हे विजिगीषु प्रजाजनों ! (इमम्) इस [के सैन्य] में (अभि संविशध्वम्) तुम प्रवेश पाओ, भर्ती हो जाओ, (दीर्घायुत्वाय) ताकि तुम सब की दीर्घ आयु हो (शतशारदाय) सौ वर्षों की आयु हो, और यह पुरुषरत्न भी (आयुष्मान्) प्रशस्त और दीर्घ आयु वाला (जरदष्टिः) अर्थात् जरावस्था को (यथा) जिस प्रकार (असत्) प्राप्त हो जाय।
टिप्पणी
[युद्धकाल में सम्राट् सेनाध्यक्ष को सब प्रकार की शक्ति प्रदान कर दे, और राजकोष के व्यय करने का अधिकार भी इसे दे दे। शक्तिप्रदान और राजकोष सोंप देने को वह सेनाध्यक्ष निधिरूप समझे जो कि सेनाध्यक्ष में निहित की गई है। प्रजाजनों को चाहिये कि सैन्य में स्वेच्छया भर्ती हों, ताकि प्रजाजन दीर्घायु हों, अर्थात् शत्रु द्वारा १०० वर्षों की आयु से पूर्व मार न दिये जांय, और सेनाध्यक्ष भी सुखी आयु और दीर्घायु प्राप्त कर सके। सैनिकों की यथोचित संख्या के अभाव में प्रजाजन भी मारे जाते हैं, और सेनाध्यक्ष भी मार दिया जाता है। नृम्णम् = बलम्, धनम् (निघं० २।९; २।१०)]
विषय
शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।
भावार्थ
(इन्द्रः) सबसे अधिक ऐश्वर्यशील परमात्मा (अस्मिन्) इस राजा में (नृम्णम्) सब मनुष्यों का अभिमत धन, बल, ऐश्वर्य और सुख (विदधातु) स्थापित करे। हे (देवासः) विद्वान्, शक्तियुक्त पुरुषो ! अधिकारियो ! (इमम्) इसके (अभि-संविशध्वम्) चारों और आकर विराजमान होओ। (यथा) जिससे यह राजा (शत-शारदाय) सौ वर्ष तक के (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ आयुतक (आयुष्मान्) दीर्घजीवी (जरदष्टिः) जरावस्था तक स्थिर (असत्) रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Pratisara Mani
Meaning
Into this triple armour of wholeness of body, mind and soul, individual as well as collenctive, may Indra, lord omnipotent, vest full power and potential for human fulfilment. Come brilliant friends, all dear to divinity, join under the protective umbrella of this divine armour so that every one in humanity should be able to live a long life of health and happiness for a hundred years till the completion of his span of earthly existence.
Translation
May the resplendent Lord fill this man with valour. O bounties of Nature, may you enter him together, for a long life-span of a hundred autumns so that he may have a long life, attaining full old-age.
Translation
May Almighty Divinity store in this King the strength, geneus and prosperity for his long life to last a hundred autumn. Let all the physical forces enter in him so that he may be long-lived and matured with old age.
Translation
In this person, may God lay a store of wealth and strength. O learned persons, come and accept the Vedic law. May this person lead a long life of a hundred years, may his days be extended to full age!
Footnote
This person: The man who follows the teachings of the Vedas.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२१−(अस्मिन्) मनुष्ये (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (नि) नियमेन (दधातु) स्थापयतु (नृम्णम्) अ० ४।२४।३। बलं धनं वा (इमम्) म० २०। मेथिम्। बोधम् (अभिसंविशध्वम्) म० २० (दीर्घायुत्वाय) चिरजीवनाय (शतशारदाय) अ० १।३५।१। शतसंवत्सरयुक्ताय (आयुष्मान्। जरदष्टिः। यथा) म० १९ (असत्) भवेत् ॥
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