अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
53
अ॒न्तर्द॑धे॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒ताह॑रु॒त सूर्य॑म्। ते मे॑ दे॒वाः पु॒रोहि॑ताः प्र॒तीचीः॑ कृ॒त्याः प्र॑तिस॒रैर॑जन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्त: । द॒धे॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒त । अह॑: । उ॒त । सूर्य॑म् । ते । मे॒ । दे॒वा: । पु॒र:ऽहि॑ता: । प्र॒तीची॑: । कृ॒त्या: । प्र॒ति॒ऽस॒रै: । अ॒ज॒न्तु॒ ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तर्दधे द्यावापृथिवी उताहरुत सूर्यम्। ते मे देवाः पुरोहिताः प्रतीचीः कृत्याः प्रतिसरैरजन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअन्त: । दधे । द्यावापृथिवी इति । उत । अह: । उत । सूर्यम् । ते । मे । देवा: । पुर:ऽहिता: । प्रतीची: । कृत्या: । प्रतिऽसरै: । अजन्तु ॥५.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
हिंसा के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी को (उत) और (अहः) दिन (उत) और (सूर्यम्) सूर्य को (अन्तः) मध्य में [हृदय में] (दधे) मैं धारण करता हूँ। (ते) वे (देवाः) व्यवहारकुशल (पुरोहिताः) पुरोहित [अग्रगामी पुरुष] (प्रतिसरैः) अग्रगामी पुरुषों सहित (मे) मेरे लिये (कृत्याः) हिंसाओं को (प्रतीचीः) प्रतिकूल गतिवाली करके (अजन्तु) हटावें ॥६॥
भावार्थ
जो पुरुष अवकाश, पृथिवी आदि पदार्थों से विज्ञानपूर्वक उपयोग लेते हैं, वे विघ्न नाश करके आनन्दित रहते हैं ॥६॥
टिप्पणी
६−(अन्तः) मध्ये (दधे) धरामि (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी। तत्रत्यान् पदार्थान् (उत) अपि च (अहः) दिनम् (उत) (सूर्यम्) आदित्यम्। शिष्टं पूर्ववत्-म० ५ ॥
विषय
द्यावापृथिवी' का अन्त:स्थापन
पदार्थ
१. वीर्यरक्षण द्वारा मैं (द्यावापृथिवी अन्तः दधे) = धुलोक व पृथिवीलोक को अपने अन्दर सुरक्षित रूप से धारण करता हूँ। मस्तिष्करूप धुलोक को व शरीररूप पृथिवी को अज्ञानान्धकार व रोगों का शिकार नहीं होने देता, (उत) = और (अहः) = दिन को, (उत) = और (सूर्यम्) = सूर्य को मैं अन्दर धारण करता हूँ। 'अहन्' शब्द अ-विनाश का सूचक है-शरीर को मैं रोगों से विनष्ट नहीं होने देता। 'सूर्य' ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक है-मैं मस्तिष्क को ज्ञानसूर्य से दीप्त करता हूँ। २.(ते) = वे (देवा:) = दिव्य वृत्तिवाले (पुरोहिता:) = [पू पालनपूरणयो:, पुरः च हिताः च] सबका पालन व पूरण करनेवाले तथा हित में प्रवृत्त व्यक्ति (प्रतीची:) = अपने अभिमुख आनेवाली (कृत्या:) = हिंसाओं को (प्रतिसरैः) = रोगरूप शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाली वीर्यमणियों द्वारा (अजन्तु) = दूर भगा दें।
भावार्थ
सुरक्षित वीर्य 'मस्तिष्क व शरीर' के स्वास्थ्य का साधन बनता है। यह शरीर को रोगों से नष्ट नहीं होने देता तथा मस्तिष्क को ज्ञानदीस बनाता है। वीर्यरक्षक, पुरोहित, देव रोगरूप शत्रुओं को दूर भगा देते हैं।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी को, (उत) तथा (अहः) दिन को, (उत) और (सूर्यम्) सूर्य को (अन्तर्दधे) मैं छिपा देता हूं, अदृश्य कर देता हूं। (ते) वे (देवाः) दिव्यगुणों वाले अधिकारी [मन्त्र ५] (मे) मेरे लिये (पुरोहिताः) पुरोहितरूप में हैं, या मेरे पुरोगामीरूप में हितकारी हैं, वे (प्रतीचीः) मेरे प्रति आने वाली (कृत्याः) शत्रु सेनाओं को [मन्त्र पृतनाः], (प्रतिसरः) उन के प्रति सरण करने वाले सैनिकों द्वारा (अजन्तु) धकेल दें।
टिप्पणी
[दो प्रकार से, शत्रुसेनाओं द्वारा किये आक्रमण को, विफल किया जा सकता है। (१) द्यावापृथिवी आदि को ढांप दिया जाय, उन्हें अदृश्य कर दिया जाय। (२) साम्राज्य की सहायता द्वारा उन्हें परास्त किया जाय। वेद में तामसास्त्र का वर्णन हुआ है, जिस द्वारा सर्वत्र अन्धकार फैला दिया जाता है, और शत्रु सेना को अपने पराये का भेद ज्ञान न रहने पर वह निज सैनिकों से ही लड़ती हुई परस्पर में विनष्ट हो जांय। यथा- अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यवे परेहि। अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमंसा विध्य शत्रुत् ।। अथर्व০ ३।२।५ || असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात् ।। अथर्व o ३।२।६ इन दो मन्त्रों से "अप्वा" अस्त्र का वर्णन हुआ है, जो कि "तमस" शत्रुओं को वींधता है। अन्तर्दधे = यथा अन्तर्धान हो जाना, छिप जाना, अदृश्य हो जाता। covering, concealment, अन्तर्धानम् = Being invisible (आप्टे]।
विषय
शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।
भावार्थ
चाहे शत्रु का आक्रमणकारी उत्पात (द्यावा पृथिवी अन्तः दधे) आकाश और पृथिवी दोनों को घेरले (उत अहः, उत सूर्यम्) और चाहे दिन और सूर्य को भी घेरलें। तो भी (मे) मेरे (ते देवाः) वे विद्वान् (पुरोहिताः) मुख्य स्थान पर नियुक्त सेनापति लोग (प्रतिसैरः) शत्रु के प्रतिकूल आगे आगे बढ़ने वाले साहसी, वीर भटों के साथ आगे बढ़ते हुए (कृत्याः) शत्रु के कामों को (प्रतीचीः) विपरीत (अजन्तु) कर दें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Pratisara Mani
Meaning
I hold within me the light of heaven and the patience and stability of the earth, the light of the day and blazing radiance of the sun by virtue of the distinguished heroes of the nation. May the Devas, leading lights and guardians of the nation, turn off the onslaughts of violence against life and humanity by the noble force of distinguished heroes.
Translation
I have put the heaven and earth, also the day, also the Sun, between (the plottings-krttyah of the enemy and myself). May these bounties of nature, placed in my forefront, drivé the evil plottings back with the counteracting blessings.
Translation
I, the mighty King who has this Mani surround the enemies in earth and space, I have in my jurisdiction the day and sun. Let these men of merit coming forward make the strategies of enemies ineffectual by their encountering attacks and activities.
Translation
If the enemy of his attack observes even the heaven and earth, the day light and Sun, let all learned officials under my command, render ineffective, with the help of valiant soldiers, the evil designs of the enemy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(अन्तः) मध्ये (दधे) धरामि (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी। तत्रत्यान् पदार्थान् (उत) अपि च (अहः) दिनम् (उत) (सूर्यम्) आदित्यम्। शिष्टं पूर्ववत्-म० ५ ॥
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