अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
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स्रा॒क्त्येन॑ म॒णिना॒ ऋषि॑णेव मनी॒षिणा॑। अजै॑षं॒ सर्वाः॒ पृत॑ना॒ वि मृधो॑ हन्मि र॒क्षसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्रा॒क्त्येन॑ । म॒णिना॑ । ऋषि॑णाऽइव । म॒नी॒षिणा॑ । अजै॑षम् । सर्वा॑: । पृत॑ना: । वि । मृध॑: । ह॒न्मि॒ । र॒क्षस॑: ॥५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
स्राक्त्येन मणिना ऋषिणेव मनीषिणा। अजैषं सर्वाः पृतना वि मृधो हन्मि रक्षसः ॥
स्वर रहित पद पाठस्राक्त्येन । मणिना । ऋषिणाऽइव । मनीषिणा । अजैषम् । सर्वा: । पृतना: । वि । मृध: । हन्मि । रक्षस: ॥५.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
हिंसा के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(स्राक्त्येन) उद्योगशील (मणिना) मणि [श्रेष्ठ नियम] द्वारा (मनीषिणा) महाबुद्धिमान् (ऋषिणा इव) ऋषि के साथ होकर जैसे मैंने (सर्वाः) सब (पृतनाः) सेनाओं को (अजैषम्) जीत लिया है, मैं (मृधः) हिंसक (रक्षसः) राक्षसों को (वि हन्मि) नाश करता हूँ ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य ऋषियों के समान पहिले से नियम धारण करके सब उपद्रवों को हटावें ॥८॥
टिप्पणी
८−(स्राक्त्येन) म० ४। उद्योगशीलेन (मणिना) म० १। श्रेष्ठनियमेन (मणिन ऋषिणा) ऋत्यकः। पा० ६।१।१२८। प्रकृतिभावत्वं ह्रस्वत्वं च (ऋषिणा) अ० २।६।१। अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा (इव) यथा (मनीषिणा) म० ३। विपश्चिता (अजैषम्) जितवानस्मि (सर्वाः) (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शत्रुसेनाः (वि) विशेषेण (मृधः) हिंसकान् (हन्मि) घातयामि (रक्षसः) राक्षसान् ॥
विषय
ऋषिणा इव मनीषिणा
पदार्थ
१. (स्नाक्त्येन मणिना) = अपने-आपको तपस्या की अग्नि में परिपाक करनेवालों में निवास करनेवाली इस वीर्यमणि के द्वारा (सर्वाः पृतना:) = सब शत्रु-सैन्यों को मैं (अजैषम्) = जीतता हूँ। २. (ऋषिणा इव) = [ऋष् to kill] समस्त वासनाओं का संहार करनेवाले तत्वद्रष्टा की भाँति (मनीषिणा) = मुझे बुद्धिमान् बनानेवाली इस मणि के द्वारा (मृधः) = मेरा विमर्दन करनेवाले (रक्षस:) = राक्षसीभावों को (विहन्मि) = नष्ट करता हूँ।
भावार्थ
अपने-आपको तपस्या की अग्नि में परिपाक करनेवाला व्यक्ति वीर्यरूप मणि को अपने में सुरक्षित करता है। यह बीर्यरूप मणि उसे सब संग्रामों में विजयी बनाती है और राक्षसीभावों को विनष्ट करती हुई उसे 'मनीषी ऋषि' बनानेवाली होती है।
भाषार्थ
(इव) जैसे (मनीषिणा ऋषिणा) मनस्वी ऋषि द्वारा [मैंने निज आसुरी भावनारूपी पृतना पर विजय पाया है] वैसे (स्राक्त्येन) स्रज द्वारा सत्कार योग्य सेनाध्यक्षरूपी (मणिन) पुरुषरत्न द्वारा (सर्वाः पृतनाः) मैं [राष्ट्रपति राजा] ने सब सेनाओं पर (अजैषम्) विजय पा लिया है। इस प्रकार मैं (मृधः) प्रमाथी (रक्षसः) राक्षसों को (वि हन्मि) विशेषतया मार देता हूं।
विषय
शत्रुनाशक सेनापति की नियुक्ति।
भावार्थ
(स्त्राक्त्येन मणिना) स्राक्त्यमणि के धारण करने वाले, (ऋषिणा इव) क्रान्तदर्शी योग्य मन्त्री के समान, (मनीषिणा) बुद्धिमान् सुभट द्वारा (सर्वाः पृतनाः) समस्त शत्रु सेनाओं को (अजेषम्) मैं राजा विजय करूं और (रक्षसः) सब राक्षसों को भी (मृधः) सब युद्धों को भी (अजैषम्) जीतूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणमुत मन्त्रोक्ता देवताः। १, ६, उपरिष्टाद् बृहती। २ त्रिपाद विराड् गायत्री। ३ चतुष्पाद् भुरिग् जगती। ७, ८ ककुम्मत्यौ। ५ संस्तारपंक्तिर्भुरिक्। ९ पुरस्कृतिर्जगती। १० त्रिष्टुप्। २१ विराटत्रिष्टुप्। ११ पथ्या पंक्तिः। १२, १३, १६-१८ अनुष्टुप्। १४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती। १५ पुरस्ताद बृहती। १३ जगतीगर्भा त्रिष्टुप्। २० विराड् गर्भा आस्तारपंक्तिः। २२ त्र्यवसाना सप्तपदा विराड् गर्भा भुरिक् शक्वरी। द्वाविंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Pratisara Mani
Meaning
By the jewel distinction of strength and courage, and the radiance of moral and spiritual integrity, as if with all the seers and sages, I win against all negative forces and destroy the evil forces of violence against life and humanity.
Translation
With this blessing of progress, as if with the help of a wise seer, I conquer all the enemy-hordes and slaughter the hateful wicked ones.
Translation
Like the most prudent seer wearing this Mani which is the mark of industry, I the King prevail all the fight and kill the foes who are like demons.
Translation
As following the excellent principle of hard work, with the aid of a thoughtful sage, I vanquish the enemy’s forces, so do I smite the violent demons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(स्राक्त्येन) म० ४। उद्योगशीलेन (मणिना) म० १। श्रेष्ठनियमेन (मणिन ऋषिणा) ऋत्यकः। पा० ६।१।१२८। प्रकृतिभावत्वं ह्रस्वत्वं च (ऋषिणा) अ० २।६।१। अतीन्द्रियार्थद्रष्ट्रा (इव) यथा (मनीषिणा) म० ३। विपश्चिता (अजैषम्) जितवानस्मि (सर्वाः) (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शत्रुसेनाः (वि) विशेषेण (मृधः) हिंसकान् (हन्मि) घातयामि (रक्षसः) राक्षसान् ॥
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