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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त
    64

    इट॑स्य ते॒ वि चृ॑ता॒म्यपि॑नद्धमपोर्णु॒वन्। वरु॑णेन॒ समु॑ब्जितां मि॒त्रः प्रा॒तर्व्युब्जतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इट॑स्य । ते॒ । वि । चृ॒ता॒मि॒ । अप‍ि॑ऽनध्दम् । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒वन् । वरु॑णेन । सम्ऽउ॑ब्जिताम् । मि॒त्र: । प्रा॒त: । वि । उ॒ब्ज॒तु॒ ॥३.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इटस्य ते वि चृताम्यपिनद्धमपोर्णुवन्। वरुणेन समुब्जितां मित्रः प्रातर्व्युब्जतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इटस्य । ते । वि । चृतामि । अप‍िऽनध्दम् । अपऽऊर्णुवन् । वरुणेन । सम्ऽउब्जिताम् । मित्र: । प्रात: । वि । उब्जतु ॥३.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शाला बनाने की विधि का उपदेश।[इस सूक्त का मिलान अथर्व काण्ड ३ सूक्त १२ से करो]

    पदार्थ

    [हे शाला !] (ते) तेरे (इटस्य) द्वार के (अपिनद्धम्) बन्धन को (अपोर्णुवन्) खोलता हुआ मैं (वि चृतामि) अच्छे प्रकार ग्रन्थित करता हूँ। (वरुणेन) ढकनेवाले अन्धकार से (समुब्जिताम्) दबाई हुई [तुझ] को (मित्रः) सर्वप्रेरक सूर्य (प्रातः) प्रातःकाल (वि उब्जतु) खोल देवे ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य घर के द्वारों में शृङ्खला चटकनी आदि ऐसी लगावें, जिससे अन्धकार के समय बन्द करने और प्रकाश के समय खोलने में सुभीता हो ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(इटस्य) इट् गतौ-क। गमनागमनस्थानस्य द्वारस्य (ते) तव (वि चृतामि) विशेषेण ग्रन्थयामि (अपिनद्धम्) बन्धनम् (अपोर्णुवन्) विवृण्वन् (वरुणेन) आवरकेण तमसा (समुब्जिताम्) संवृतां त्वाम् (मित्रः) सर्वप्रेरकः सूर्यः (प्रातः) प्रभाते (वि उब्जतु) विवृणोतु ॥

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    विषय

    सूर्यप्रकाश के लिए द्वार का खुलना

    पदार्थ

    १. हे शाले! (ते) = तेरे (इटस्य अपिनद्धम्) = [इट गती, गमनागमन स्थानस्य-क्षेम०] गमनागमन द्वार के बन्धन को (अपोर्णवन्) = समय-समय पर खोलता हुआ (विचृतामि) = पुन: विशेरूप से ग्रथित करता हूँ। द्वार के खोलने और बन्द करने का ध्यान रखता हूँ। २. (वरुणेन समुब्जिताम्) = आवरक अन्धकार से आवृत हुई-हुई तुझ शाला को (प्रात:) = रात्रि की समाति पर प्रात: (मित्रः) = सूर्य (व्युब्जतु) = पुन: प्रकाशमय कर दे।

    भावार्थ

    हमारी शालाओं के द्वार अन्धकार के समय बन्द होकर प्रात: सूर्य के प्रकाश के स्वागत के लिए खुल जाएँ। घर में सूर्य का प्रकाश सम्यक् प्रवेश पाये।

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    भाषार्थ

    हे शाला ! (इटस्य) आने-जाने के (ते) तेरे [मार्ग] को (अपिनद्धम्) जोकि [रात्रीकाल में] वन्धा हुआ अर्थात् बन्द था, उसे (अपोर्णुवन्) आच्छादन से रहित करता हुआ मैं [गृहपति], (विचृतामि) पुनः ग्रथित कर देता है, (वरुणेन) आवरण करने वाले अन्धकार द्वारा (समुब्जिताम्) ढकी हुई शाला को (मित्रः) सूर्य (प्रातः ब्युब्जतु) प्रातःकाल खोल दे।

    टिप्पणी

    [इटस्य इट गतौ (भ्वादिः)। अपोर्णुवन्= अप + ऊर्णुञ् आच्छादने, आच्छादन से रहित करता हुआ, खोलता हुआ। वरुणेन= वृञ्, आवरणे (चुरादिः)। मन्त्र में रात्री काल में आने-जाने के मार्ग को बन्द करने, और प्रातः काल उसे खोल देने का कथन हुआ है। कौशिक सूत्र ६६।२४ में द्वार को बन्द करने के लिये मन्त्र विनियुक्त हुआ है]

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    विषय

    शाला, महाभवन का निर्माण और प्रतिष्ठा।

    भावार्थ

    हे शाले ! (ते) तेरे ऊपर लगे (इटस्य) चटाई घास के (अपिनद्धम्) बँधे हुए पूलों को (अप ऊर्णुवन्) अलग करता हुआ मैं (वि चतामि) खोलता हूं। और (वरुणेन) रात्रि के अन्धकार से (सम् उब्जितां) ढकी हुई को (प्रातः) प्रातःकाल (मित्रः) सूर्य (वि उब्जतु) विशेष रूप से प्रकाशित करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वङ्गिरा ऋषिः। शाला देवता। १, ५ , ८, १४, १६, १८, २०, २२, २४ अनुष्टुभः। ६ पथ्यापंक्तिः। ७ परा उष्णिक्। १५ त्र्यवसाना पञ्चपदातिशक्वरी। १७ प्रस्तारपंक्तिः। २१ आस्तारपंक्तिः। २५, ३१ त्रिपादौ प्रजापत्ये बृहत्यौ। २६ साम्नी त्रिष्टुप्। २७, २८, २९ प्रतिष्ठा नाम गायत्र्यः। २५, ३१ एकावसानाः एकत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Good House

    Meaning

    Opening the main gate of the house earlier closed and secured for the night, I fix it for the day. May the sun uncover and illuminate the home covered in darkness at night.

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    Translation

    Inaugurating you, I unfasten your covering of mats tied on you. Closed firmly by the venerable Lord, may the friendly Lord open you ùp in the morning.

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    Translation

    I, the master of the house loosen and remove from this house the covering formed of mats of reed. Whatever of it is covered by the night let the sun in the morning illuminate.

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    Translation

    O house, opening the bolt of thy door, I fasten it well! What the dark¬ ness of night hath firmly closed, the sun shall ope at early morn.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(इटस्य) इट् गतौ-क। गमनागमनस्थानस्य द्वारस्य (ते) तव (वि चृतामि) विशेषेण ग्रन्थयामि (अपिनद्धम्) बन्धनम् (अपोर्णुवन्) विवृण्वन् (वरुणेन) आवरकेण तमसा (समुब्जिताम्) संवृतां त्वाम् (मित्रः) सर्वप्रेरकः सूर्यः (प्रातः) प्रभाते (वि उब्जतु) विवृणोतु ॥

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