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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 34
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - दशपदा प्रकृतिः सूक्तम् - अज सूक्त
    62

    यो वै पि॒न्वन्तं॒ नाम॒र्तुं वेद॑। पि॑न्व॒तींपि॑न्वतीमे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रिय॒मा द॑त्ते। ए॒ष वै पि॒न्वन्नाम॒र्तुर्यद॒जः पञ्चौ॑दनः। निरे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रियं॑ दहति॒ भव॑त्या॒त्मना॒ यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वै । पि॒न्वन्त॑म् । नाम॑ । ऋ॒तुम् । वेद॑ । पि॒न्व॒तीम्ऽपि॑न्वतीम् । ए॒व । अप्रि॑यस्य । भ्रातृ॑व्यस्य । श्रिय॑म् । आ । द॒त्ते॒ । ए॒ष: । वै । पि॒न्वन् । नाम॑ । ऋ॒तु: । यत् । अ॒ज: । पञ्च॑ऽओदन: ॥५.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वै पिन्वन्तं नामर्तुं वेद। पिन्वतींपिन्वतीमेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियमा दत्ते। एष वै पिन्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । वै । पिन्वन्तम् । नाम । ऋतुम् । वेद । पिन्वतीम्ऽपिन्वतीम् । एव । अप्रियस्य । भ्रातृव्यस्य । श्रियम् । आ । दत्ते । एष: । वै । पिन्वन् । नाम । ऋतु: । यत् । अज: । पञ्चऽओदन: ॥५.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (वै) निश्चय करके (पिन्वन्तम्) सींचनेवाले (नाम) प्रसिद्ध (ऋतुम्) ऋतु को (वेद) जानता है और [जो] (अप्रियस्य) अप्रिय (भ्रातृव्यस्य) शत्रु की (पिन्वतीं पिन्वतीम्) अत्यन्त सींचनेवाली (श्रियम्) श्री को (एव) अवश्य (आ दत्ते) ले लेता है। (एषः वै) वही [परमेश्वर] (पिन्वन्) सींचनेवाला (नाम) प्रसिद्ध... म० ३१ ॥३४॥

    भावार्थ

    अन्न आदि पुष्ट करने का नियम जाननेवाला परमेश्वर है-अन्यत् पूर्ववत् ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३४−(पिन्वन्तम्) पिवि सेचने सेवने च-शतृ। सिञ्चन्तम्। पोषयन्तम् (पिन्वतीं, पिन्वतीम्) अतिशयेन पोषयन्तीम् (पिन्वन्) पोषयन्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    पिन्वन्, उद्यन्, अभिभूः

    पदार्थ

    १. (य:) = जो (वै) = निश्चय से (पिन्वन्तं नाम ऋतुं वेद) = पिन्वन् नामक ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन:) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान के भोजन को ग्रहण करनेवाला (अज:) = गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाला जीव ही (पिन्वन् नाम ऋतु:) = पिन्वन् नामक ऋतु है। नियमित गतिवाला होने से 'ऋतु' है और वृद्धि को प्राप्त होनेवाला होने से 'पिन्वन्' है। यह (अप्रियस्य भ्रातव्यस्य) = अप्रीतिवाले शत्रुभूत 'मोह' की (पिन्वती पिन्वतीम्) = निरन्तर बढ़ती हुई (एव) = भी (श्रियम्) = श्री को आदत्ते छीन लेता है। मोह को श्रीशून्य [विनष्ट] करके यह वस्तुतः वृद्धि को प्राप्त होता हुआ 'पिन्वन्' बनता है। २. (य:) = जो (वै) = निश्चय से (उद्यन्तं नाम ऋतु वेद) = उद्यन् नामक ऋतु को जानता है, (यत्) = कि (एष:) = यह (पञ्चौदन: अज: वै) = पञ्चौदन अज ही (उद्यन् नाम ऋतु) = उद्यन् नामक ऋतु है। यह 'उद्यन् ऋतु' (अप्रियस्य भ्रातव्यस्य) = मदरूप शत्रु की (उद्यतीम् उद्यतीम् एव श्रियम् आदत्ते) = उन्नत होती हुई श्री को छीन लेता है। मद को विनष्ट करके ही यह उत्थान को प्राप्त होता है। अभिमान ही तो पतन का हेतु बनता है। ३. (य:) = जो (वै) = निश्चय से (अभिभुवं नाम ऋतु वेद) = अभिभू नामक ऋतु को जानता है, यत्-कि एषः यह पञ्चौदन: अज: वै-पञ्चौदन अज ही निश्चय से अभिभूः नाम ऋतु: अभिभू नामक ऋतु है, वह 'अभिभू ऋतु' अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य अप्रीतिकर मत्सररूप शत्रु की (अभिभवन्तीम् अभिभवन्तीम् एव श्रियम् आदत्ते) = अभिभूत करती हुई श्री को छीन लेता है। मात्सर्य को अभिभूत करके ही शत्रुओं का अभिभव कर पाते हैं।

    भावार्थ

    हम शक्तियों का वर्धन करते हुए 'पिन्वन्' बनें, उन्नत होते हुए 'उद्यन्' हों और सब शत्रुओं का अभिभव करके 'अभिभू' नामवाले हों। पिन्वन् बनकर मोह को परास्त करें, 'उद्यन्' होते हुए 'मद' को नष्ट करें तथा 'अभिभू' बनकर 'मत्सर' से ऊपर उठे।

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    भाषार्थ

    (यः) जो पुरोहित या अध्यात्म गुरु (वै) वस्तुतः (पिन्वन्तं नाम ऋतुम्) पुष्टिदायक ऋतु को उस के नामानुरूप (वेद) जानता है, वह (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) अप्रिय भ्रातृव्य की (पिन्वतीम् पिन्वतीम् एव) पोषण करती हुई प्रत्येक (श्रियम्) प्रत्येक शोभा सम्पत्ति को (आदत्ते) हर लेता है, स्वायत्त कर लेता है। (एष वै पिन्वन्नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः) जोकि पांच इन्द्रिय-भोगों का स्वामी अजन्मा परमेश्वर है। यह ही पोषण करनेवाली ऋतु है। वह अध्यात्मगुरु (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) अप्रिय भ्रातृव्य को (श्रियम्) शोभा सम्पत्ति को (निर्दहति) दग्ध कर देता है; (अत्मना भवति) और स्वयं उस पर प्रभुता को प्राप्त कर लेता है, जोकि (पञ्चौदनम् अजम्) पांच इन्द्रियभोगों के स्वामी, अजन्मा परमेश्वर को, (दक्षिणाज्योतिषम्) दक्षिणा के फलस्वरूप पारमेश्वरीय ज्योति के रूप में गृहस्थी के प्रति (ददाति) प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    [पिन्वन्तम् यथा पिवन्थ=पोषयथ (सायण अथर्व० ६।२२।२) एकत्रित की हुई व्रीहि आदि के सेवन द्वारा भोक्ता पुष्टि प्राप्त करते हैं, अतः शरद् ऋतु (मन्त्र ३३) के पश्चात् (मन्त्र ३४) में हेमन्त ऋतु का वर्णन हुआ है। शेष अभिप्राय मन्त्र ३१ के सदृश।]

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    विषय

    अज के दृष्टान्त से पञ्चौदन आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः वै पिन्दन्तं नाम ऋतुं वेद) जो ‘पिन्वन्त’ नाम के ऋतु अर्थात् बढ़ाने वाली ऋतु-हेमन्त को जानता है वह (अप्रियस्प भ्रातृव्यस्य) अपने अप्रिय शत्रु अर्थात् काम क्रोध आदि की (पिन्वतीं श्रियम् एव) बढ़ी हुई शक्ति को तृप्त करने वाली शक्ति को (आदत्ते) हर लेता है। (एष वै पिन्वत् नाम ऋतुः यद् अजः पंचौदनः) क्योंकि जो पूर्व पंचौदन नामक अज परमात्मा बतलाया गया है वह ही यह ‘पिन्वत्’ नामक ऋतु है। यह सबको बढ़ाने वाली, प्राणित करने वाली, तृप्त करने वाली ‘ऋतु’ अर्थात् शक्ति है। (निः एव अप्रियस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। अजः पञ्चोदनो देवता। १, २, ५, ९, १२, १३, १५, १९, २५, त्रिष्टुभः, ३ चतुष्पात् पुरोऽति शक्वरी जगती, ४, १० नगत्यौ, १४, १७,२७, ३०, अनुष्टुभः ३० ककुम्मती, २३ पुर उष्णिक्, १६ त्रिपाद अनुष्टुप्, १८,३७ त्रिपाद विराड् गायत्री, २४ पञ्चपदाऽनुपटुबुष्णिग्गर्भोपरिष्टाद्बर्हता विराड् जगती २०-२२,२६ पञ्चपदाउष्णिग् गर्भोपरिष्टाद्बर्हता भुरिजः, ३१ सप्तपदा अष्टिः, ३३-३५ दशपदाः प्रकृतयः, ३६ दशपदा प्रकृतिः, ३८ एकावसाना द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप, अष्टात्रिंशदर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    Whoever the immortal soul conditioned in the five-fold state of mortality that attains to the life season named growth, and knows for certain that this is the time and season for growth, who surrenders his mortal identity of immortality clad in light and generosity to the home, the family and the Lord Divine, takes away the growing power and good fortune of his hostile rival, in fact burns and destroys the power and fortune of his hateful rival and rises in life by the strength of his soul.

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    Translation

    He, who surely knows the season called, ‘abounding’, (pinvati), takes to himself each and every abounding (pinvan) splendour in making, of his hated enemy. This, indeed, is the season called abounding that is the pancaudana aja. He burns out the splendour of his hated enemy and prospers by himself; whose offers a panaudana aja brightened with sacrificial gifts.

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    Translation

    He who knows the season called the swelling (winter) takes to himself the swelling fame, the swelling glory of his hated rival. Really this soul living in the body of five elements is this swelling season. He burns up the glory of his hated rival certainly and decidedly lives with his spirit if he surrenders the eternal soul living in the body of five elements and possessing the light of knowledge, to God.

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    Translation

    He, who knows the invigorating winter season, overcomes the develop¬ ed advanced force of his unfriendly foes like lust and anger. This winter season is another beauty of the Unborn God. He who dedicates himself to the Unborn God, the Absorber of five elements at the time of Dissolution, Illumined with charity, rests on the strength of his soul, and eclipses the force of his unfriendly foes like lust, anger and avarice.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(पिन्वन्तम्) पिवि सेचने सेवने च-शतृ। सिञ्चन्तम्। पोषयन्तम् (पिन्वतीं, पिन्वतीम्) अतिशयेन पोषयन्तीम् (पिन्वन्) पोषयन्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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