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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृगुः देवता - अजः पञ्चौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अज सूक्त
    64

    ऋ॒चा कु॒म्भीमध्य॒ग्नौ श्र॑या॒म्या सि॑ञ्चोद॒कमव॑ धेह्येनम्। प॒र्याध॑त्ता॒ग्निना॑ शमितारः शृ॒तो ग॑च्छतु सु॒कृतां॒ यत्र॑ लो॒कः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒चा । कु॒म्भीम् । अधि॑ । अ॒ग्नौ । श्र॒या॒मि॒ । आ । सि॒ञ्च॒ । उ॒द॒कम् । अव॑ । धे॒हि॒ । ए॒न॒म् । प॒रि॒ऽआध॑त्त । अ॒ग्निना॑ । श॒मि॒ता॒र॒: । शृ॒त: । ग॒च्छ॒तु॒ । सु॒ऽकृता॑म् । यत्र॑ । लो॒क: ॥५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचा कुम्भीमध्यग्नौ श्रयाम्या सिञ्चोदकमव धेह्येनम्। पर्याधत्ताग्निना शमितारः शृतो गच्छतु सुकृतां यत्र लोकः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋचा । कुम्भीम् । अधि । अग्नौ । श्रयामि । आ । सिञ्च । उदकम् । अव । धेहि । एनम् । परिऽआधत्त । अग्निना । शमितार: । शृत: । गच्छतु । सुऽकृताम् । यत्र । लोक: ॥५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से सुख का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे जीवात्मा !] (ऋचा) वेदवाणी से (कुम्भीम्) बटलोही को (अग्नौ अधि) अग्नि पर (श्रयामि) मैं रखता हूँ, तू (उदकम्) जल (आ सिञ्च) सींच दे, (एनम्) इस [अन्न जैसे जीवात्मा] को (अव धेहि) तू धर दे। (शमितारः) हे विचारवानो ! (अग्निना) अग्नि से [अन्न जैसे उसको] (पर्याधत्त) तुम ढक दो, (शृतः) परिपक्व [दृढ़ बुद्धिवाला] वह [वहाँ] (गच्छतु) जावे (यत्र) जहाँ (सुकृताम्) सुकर्मियों का (लोकः) दर्शनीय स्थान है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे चतुर सूपकार आग पर बटलोही धर जल डालकर अन्न को आग द्वारा पकाकर उपकारी बनाता है, वैसे ही योगी जन आचार्य्य की शिक्षा से ब्रह्मचर्य आदि तप करके वेद द्वारा शान्त और परिपक्व बुद्धिवाला होकर धर्म्मात्माओं के बीच धर्म्मात्मा होता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(ऋचा) ऋच स्तुतौ-क्विप्। ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदवाण्या (कुम्भीम्) उखाम् (अधि) उपरि (अग्नौ) वह्नौ (श्रयामि) स्थापयामि (आ) समन्तात् (सिञ्च) (उदकम्) (अवधेहि) अधस्ताद् धर (एनम्) जीवात्मानम् (पर्याधत्त) आच्छादयत (अग्निना) (शमितारः) शम आलोचने-तृच्। हे विचारवन्तः (शृतः) अ० ४।१४।९। परिपक्वज्ञानः (गच्छतु) (सुकृताम्) पुण्यात्मनाम् (यत्र) (लोकः) दर्शनीयं स्थानम् ॥

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    विषय

    कुम्भी का अग्नि पर श्रयण

    पदार्थ

    १. (ऋचा) = विज्ञान के हेतु से (कुम्भीम्) = इस अपने शरीर-कलश को (अग्नौ अधिश्रयामि) = ज्ञानाग्नि के पुजभूत आचार्य में अधिश्रित करता हूँ। शरीर कलश है, यह सोलह कलाओं का आधार है। आचार्य इसे ज्ञानाग्नि में परिपक्व करता है। एक ब्रह्मचारी ज्ञान-प्राप्ति के हेतु से आचार्य की ज्ञानाग्नि में परिपक्व होने के लिए अपने को आचार्य के प्रति अर्पित करता है और आचार्य से कहता है कि इस कुम्भीरूप मुझमें (उदकम्) = ज्ञान-जल को (आसिञ्च) = सिक्त कीजिए। (एनम्) = इस मुझे (अवधेहि) = दूषित प्रवृतियों से दूर [अव] स्थापित कीजिए [धेहि]। २. (शमितार:) = [शम् आलोचने] हे उत्तम आलोचन [तत्त्वदर्शन] से युक्त आचार्यों! मुझे अग्रिना ज्ञानाग्नि से (परि आधत्त) = चारों ओर से धारण करो। मैं ज्ञानाग्नि में आहित हुआ-हुआ अपने को परिपक्व कर पाऊँ। (शृत:) = ज्ञानाग्नि में परिपक्व हुआ-हुआ यह आपका शिष्य वहाँ (गच्छतु) = जाए, (यत्र) = जहाँ कि (सुकृतां लोकः) = पुण्यकर्मा लोगों का निवास है, अर्थात् ज्ञानाग्नि में परिपक्व हुआ-हुआ यह व्यक्ति एक उत्तम गृही बने।

    भावार्थ

    विज्ञान के हेतु से हम आचार्य के समीप रहते हुए अपने को ज्ञानाग्नि में परिपक्व करें और दूषित प्रवृत्तियों से दूर रहते हुए परिपक्व ज्ञानवाले बनकर सद्गृहस्थ बनें।

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    भाषार्थ

    (ऋचा) वेदवाणी के अनुसार (कुम्भीम्) तेरी शरीररूपी कुम्भी को (अग्नौ) तपश्चर्या की अग्नि पर (अधि श्रयामि) मैं आचार्य स्थापित करता हूं, (आ सिञ्च उदकम्) [हे आश्रमाध्यक्ष!] इसमें आश्वासनरूपी उदक को तू सींचता रह, (एनम्) और इसे (अवधेहि) सावधान करता रह। (शमितारः) हे शान्त करने वालो ! (अग्निना) ज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा इस का (पर्याधत्त) पर्याधान करो [इसे नया वस्त्र पहनाओ], (शृतः) परिपक्व होकर यह (गच्छतु) जाए (यत्र) जहां कि (सुकृतां लोकः) सुकर्मियों का लोक है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में कुम्भी के परिपाक का वर्णन तो स्पष्ट ही है, परन्तु अभिप्राय प्रतीत होता है मुमुक्षु की शारीरिक तपश्चर्या का “ऋचा” पद द्वारा सम्भवतः ब्रह्मचर्य सूक्त (अथर्व० ११।५) प्रतीत होता है जिसमें कि तपश्चर्या का वर्णन है। मुमुक्षु ब्रह्मचर्याश्रम का निवासी नहीं, परन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिये भी तपश्चर्या का जीवन आवश्यक है। इसलिये आचार्य, मुमुक्षु को तपश्चर्या की अग्नि पर स्थापित करने की आज्ञा देता है। और आश्रम के अन्य निवासियों को,– जिन्हें कि “शमितारः” कहा है,— इस मुमुक्षु की देख-भाल के लिये निर्देश देता है, (१) कि इसे आश्वासनरूपी उदक द्वारा सींचते रहो, (२) इसे सावधान भी करते रहो ताकि यह तपश्चर्या के व्रत को छोड़ न दे, (३) तथा इसे ज्ञानाग्नि द्वारा ज्ञानवान् करके नवजीवन रूपी नववस्त्र द्वारा आच्छादित करो, ताकि यह सुकर्मियों के स्थान को प्राप्त हो सके]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Soul, the Pilgrim

    Meaning

    I place the personality of the seeker on the fire of Brahmacharya discipline by the Rks. Pour the waters of purity and sanctity into the personality and character and keep it there in the crucible. O teachers of peace and thought, let it be covered in the light and fire all round so that, perfected to the finish, the person rises and proceeds to the world of the noble souls of knowledge and devout action.

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    Translation

    With a Rk verse I place the cooking vessel on fire; pour in the water; plunge this down. Surround this with fire, O quellers; cooked may he reach the region where the virtuous live.

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    Translation

    I, the priest put the cauldron on the fire to warm the ghee, O another priest ! you pour the yajnakunda; O third one ! tell the technic of the yajna this yajmana; O learned ones ! enkindle the woods of yajnagkunda, let the yajmanana, being ripe and matured in knowledge and action attain the state and life of pious and righteous men.

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    Translation

    Just as a cauldron is heated being placed on fire, so do I, an aspirant after salvation, through the fire of knowledge, depending upon the guru blazing with learning, strengthen myself. O Guru, just aswater is put in a heated cauldron, so preach unto me, a seeker after truth, the knowledge of God, whereby I may obtain bliss. O disciple, “understand the true nature of this soul.,, O self-controlled preceptors, “Unite me with that Wise God.” Perfect¬ ed through penance, let the disciple go to a place where dwell the righteous.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(ऋचा) ऋच स्तुतौ-क्विप्। ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। वेदवाण्या (कुम्भीम्) उखाम् (अधि) उपरि (अग्नौ) वह्नौ (श्रयामि) स्थापयामि (आ) समन्तात् (सिञ्च) (उदकम्) (अवधेहि) अधस्ताद् धर (एनम्) जीवात्मानम् (पर्याधत्त) आच्छादयत (अग्निना) (शमितारः) शम आलोचने-तृच्। हे विचारवन्तः (शृतः) अ० ४।१४।९। परिपक्वज्ञानः (गच्छतु) (सुकृताम्) पुण्यात्मनाम् (यत्र) (लोकः) दर्शनीयं स्थानम् ॥

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