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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तमित्पृ॑च्छन्ति॒ न सि॒मो वि पृ॑च्छति॒ स्वेने॑व॒ धीरो॒ मन॑सा॒ यदग्र॑भीत्। न मृ॑ष्यते प्रथ॒मं नाप॑रं॒ वचो॒ऽस्य क्रत्वा॑ सचते॒ अप्र॑दृपितः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इत् । पृ॒च्छ॒न्ति॒ । न । सि॒मः । वि । पृ॒च्छ॒ति॒ । स्वेन॑ऽव । धीरः॑ । मन॑सा । यत् । अग्र॑भीत् । न । मृ॒ष्य॒ते॒ । प्र॒थ॒मम् । न । अप॑रम् । वचः॑ । अ॒स्य । क्रत्वा॑ । स॒च॒ते॒ । अप्र॑ऽदृपितः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमित्पृच्छन्ति न सिमो वि पृच्छति स्वेनेव धीरो मनसा यदग्रभीत्। न मृष्यते प्रथमं नापरं वचोऽस्य क्रत्वा सचते अप्रदृपितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। इत्। पृच्छन्ति। न। सिमः। वि। पृच्छति। स्वेनऽव। धीरः। मनसा। यत्। अग्रभीत्। न। मृष्यते। प्रथमम्। न। अपरम्। वचः। अस्य। क्रत्वा। सचते। अप्रऽदृपितः ॥ १.१४५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अप्रदृपितः) जो अतीव मोह को नहीं प्राप्त हुआ वह (धीरः) ध्यानवान् विचारशील विद्वान् (स्वेनेव) अपने समान (मनसा) विज्ञान से (यत्) जिस (वचः) वचन को (अग्रभीत्) ग्रहण करता है वा जो (अस्य) इस शास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वान् की (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म के साथ (सचते) सम्बन्ध करता है वह (प्रथमम्) प्रथम (न) नहीं (मृष्यते) संशय को प्राप्त होता और वह (अपरम्) पीछे भी (न) नहीं संशय को प्राप्त होता है जिसको (सिमः) सर्व मनुष्यमात्र (न) नहीं (वि, पृच्छति) विशेषता से पूछता है (तमित्) उसीको विद्वान् जन (पृच्छन्ति) पूछते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। आप्त=साक्षात्कार जिन्होंने धर्मादि पदार्थ किये वे=शास्त्रवेत्ता मोहादि दोषरहित विद्वान् योगाभ्यास से पवित्र किये हुए आत्मा से जिस जिस को सत्य वा असत्य निश्चय करें वह वह अच्छा निश्चय किया हुआ है यह और मनुष्य मानें, जो उनका सङ्ग न करके सत्य-असत्य के निर्णय को जानना चाहते हैं वे कभी सत्य-असत्य का निर्णय नहीं कर सकते, इससे आप्त विद्वानों के उपदेश से सत्य-असत्य का निर्णय करना चाहिये ॥ २ ॥

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