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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋ॒जुरिच्छंसो॑ वनवद्वनुष्य॒तो दे॑व॒यन्निददे॑वयन्तम॒भ्य॑सत्। सु॒प्रा॒वीरिद्व॑नवत्पृ॒त्सु दु॒ष्टरं॒ यज्वेदय॑ज्यो॒र्वि भ॑जाति॒ भोज॑नम्॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒जुः । इत् । शंसः॑ । व॒न॒व॒त् । व॒नु॒ष्य॒तः । दे॒व॒यन् । इत् । अदे॑वऽयन्तम् । अ॒भि । अ॒स॒त् । सु॒प्र॒ऽअ॒वीः । इत् । व॒न॒व॒त् । पृ॒त्ऽसु । दु॒स्तर॑म् । यज्वा॑ । इत् । अयज्योः॑ । वि । भ॒जा॒ति॒ । भोज॑नम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋजुरिच्छंसो वनवद्वनुष्यतो देवयन्निददेवयन्तमभ्यसत्। सुप्रावीरिद्वनवत्पृत्सु दुष्टरं यज्वेदयज्योर्वि भजाति भोजनम्॥
स्वर रहित पद पाठऋजुः। इत्। शंसः। वनवत्। वनुष्यतः। देवयन्। इत्। अदेवऽयन्तम्। अभि। असत्। सुप्रऽअवीः। इत्। वनवत्। पृत्ऽसु। दुस्तरम्। यज्वा। इत्। अयज्योः। वि। भजाति। भोजनम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - अब इस दूसरे मण्डल के छब्बीसवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र से विद्वानों को क्या कर्त्तव्य है, इस विषय को कहते हैं।
पदार्थ -
जो (यज्वा) मिलनसार जन (अयज्योः) विरोधी के (इत्) ही (भोजनम्) भोग्य पदार्थ को (वि, भजाति) पृथक् करता है वह (इत्) ही (सुप्रावीः) सुन्दर रक्षक हुआ (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (वनवत्) वन के तुल्य (दुष्टरम्) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य शत्रुदल को छिन्न-भिन्न करता है जो (देवयन्) अपने को विद्वान् मानता हुआ (अदेवयन्तम्) मूर्ख का सा आचरण करते हुए को (इत्) ही (अभि,असत्) सन्मुख प्राप्त हो वह (वनवत्) किरणों के तुल्य (शंसः) स्तुति करने योग्य (वनुष्यतः) हिंसा करनेवाले से (इत्) ही (जुः) सरल कोमल स्वभाव होवे ॥१॥
भावार्थ - जो मनुष्य पण्डिताई को चाहते मूर्खता को छोड़ते और शत्रुओं को जीतते हुए भोग्य पदार्थों को विशेष कर सेवन करते हैं, वे दुःखों को छोड़ देते हैं ॥१॥
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