ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
द॒धि॒क्राम॒ग्निमु॒षसं॑ च दे॒वीं बृह॒स्पतिं॑ सवि॒तारं॑ च दे॒वम्। अ॒श्विना॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ भगं॑ च॒ वसू॑न्रु॒द्राँ आ॑दि॒त्याँ इ॒ह हु॑वे॥
स्वर सहित पद पाठद॒धि॒ऽक्राम् । अ॒ग्निम् । उ॒षस॑म् । च॒ । दे॒वीम् । बृह॒स्पति॑म् । स॒वि॒तार॑म् । च॒ । दे॒वम् । अ॒श्विना॑ । मि॒त्रावरु॑णा । भग॑म् । च॒ । वसू॑न् । रु॒द्रा॑न् । आ॒दि॒त्या॑न् । इ॒ह । हु॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दधिक्रामग्निमुषसं च देवीं बृहस्पतिं सवितारं च देवम्। अश्विना मित्रावरुणा भगं च वसून्रुद्राँ आदित्याँ इह हुवे॥
स्वर रहित पद पाठदधिऽक्राम्। अग्निम्। उषसम्। च। देवीम्। बृहस्पतिम्। सवितारम्। च। देवम्। अश्विना। मित्रावरुणा। भगम्। च। वसून्। रुद्रान्। आदित्यान्। इह। हुवे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
विषय - फिर विद्वान् मनुष्य के कर्त्तव्य को कहते हैं।
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! जैसे मैं (इह) इस संसार में (दधिक्राम्) भूमि आदि धारण करनेवाले पदार्थों को उल्लङ्घन करके वर्त्तमान (अग्निम्) बिजुली रूप अग्नि (देवीम्) प्रकाशमान तथा कामना करने योग्य (उषसम्) प्रातःकाल (च) और (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े पदार्थों का रक्षक वायु (सवितारम्) सूर्य्य और सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति करनेवाला (देवम्) कामनायोग्य दानशील ईश्वर (च) और (अश्विना) अध्यापक उपदेशकर्त्ता (मित्रावरुणा) प्राण (च) और उदान वायु (भगम्) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को देनेवाला व्यवहार (वसून्) भूमि आदि पदार्थ (रुद्रान्) प्राण और (आदित्यान्) संवत्सरों के मासों की (हुवे) स्तुति करता हूँ वा ग्रहण करता हूँ, वैसे ही तुम लोग इनकी निरन्तर स्तुति वा ग्रहण करो ॥५॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् लोग इस सृष्टि के उपकारक पदार्थों से संपूर्ण कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वैसे ही उन पदार्थों के गुणों को जानकर सम्पूर्ण अभीष्ट कार्यों को सिद्ध करें और सर्व जनों से ईश्वर-उपासना करने योग्य है ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि आदि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह बीसवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
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