ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 41/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑॥
स्वर सहित पद पाठअर्वाञ्च॑म् । त्वा॒ । सु॒ऽखे । रथे॑ । वह॑ताम् । इ॒न्द्र॒ । के॒शिना॑ । घृ॒तस्नू॒ इति॑ घृ॒तऽस्नू॑ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं त्वा सुखे रथे वहतामिन्द्र केशिना। घृतस्नू बर्हिरासदे॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम्। त्वा। सुऽखे। रथे। वहताम्। इन्द्र। केशिना। घृतस्नू इति घृतऽस्नू। बर्हिः। आऽसदे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 41; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो (घृतस्नू) घृत अर्थात् जल को पवित्र करनेवाले (केशिना) बहुत केशों से युक्त (अर्वाञ्चम्) नीचे जानेवाले (त्वा) आपको (सुखे) सुख करानेवाले (रथे) सुन्दर वाहन और (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (आसदे) वर्त्तमान होने के लिये (वहताम्) पहुँचावें, उनको आप जानिये ॥९॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! दो अग्नियों से चलाये हुए वाहनों पर स्थित होकर नीचे ऊपर और तिरछे देश में जाकर आइये ॥९॥ इस सूक्त में विद्वान् मनुष्यों के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, ऐसा जानना चाहिये ॥ यह इकतालीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
इस भाष्य को एडिट करें