ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
तमि॑न्द्र॒ मद॒मा ग॑हि बर्हिः॒ष्ठां ग्राव॑भिः सु॒तम्। कु॒विन्न्व॑स्य तृ॒प्णवः॑॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒न्द्र॒ । मद॒म् । आ । ग॑हि ब॒र्हिः॒ऽस्थाम् । ग्राव॑ऽभिः । सु॒तम् । कु॒वित् । नु । अ॒स्य॒ । तृ॒ष्णवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्र मदमा गहि बर्हिःष्ठां ग्रावभिः सुतम्। कुविन्न्वस्य तृप्णवः॥
स्वर रहित पद पाठतम्। इन्द्र। मदम्। आ। गहि बर्हिःऽस्थाम्। ग्रावऽभिः। सुतम्। कुवित्। नु। अस्य। तृप्णवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ -
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य्य की इच्छा करनेवाले ! जो (अस्य) इस सोमलता की (तृप्णवः) तृप्ति करनेवाले हैं उनसे (कुवित्) श्रेष्ठ होकर (तम्) उस पूर्वोक्त को (ग्रावभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न (मदम्) आनन्दकारक (बर्हिष्ठाम्) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान होनेवाले ओषधिगणों के सदृश वर्त्तमान ऐश्वर्य को (नु) शीघ्र (आ, गहि) सब प्रकार प्राप्त हूजिये ॥२॥
भावार्थ - जो सोमलता आदि ओषधियाँ वृष्टियों से उत्पन्न होतीं रोगविनाशक होने से तृप्तिकारक होतीं और सूक्ष्म अवयवों के द्वारा अन्तरिक्ष को प्राप्त हो के सब स्थानों में फैलती हैं, उनका युक्ति से सेवन करके सदा आनन्द का भोग करना चाहिये ॥२॥
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