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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र मे॑ विवि॒क्वाँ अ॑विदन्मनी॒षां धे॒नुं चर॑न्तीं॒ प्रयु॑ता॒मगो॑पाम्। स॒द्यश्चि॒द्या दु॑दु॒हे भूरि॑ धा॒सेरिन्द्र॒स्तद॒ग्निः प॑नि॒तारो॑ अस्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मे॒ । वि॒वि॒क्वान् । अ॒वि॒द॒त् । म॒नी॒षाम् । धे॒नुम् । चर॑न्तीम् । प्रऽयु॑ताम् । अगो॑पाम् । स॒द्यः । चि॒त् । या । दु॒दु॒हे । भूरि॑ । धा॒सेः । इन्द्रः॑ । तत् । अ॒ग्निः । प॒नि॒तारः॑ । अ॒स्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मे विविक्वाँ अविदन्मनीषां धेनुं चरन्तीं प्रयुतामगोपाम्। सद्यश्चिद्या दुदुहे भूरि धासेरिन्द्रस्तदग्निः पनितारो अस्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। मे। विविक्वान्। अविदत्। मनीषाम्। धेनुम्। चरन्तीम्। प्रऽयुताम्। अगोपाम्। सद्यः। चित्। या। दुदुहे। भूरि। धासेः। इन्द्रः। तत्। अग्निः। पनितारः। अस्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    जो (विविक्वान्) प्रकट मनुष्य (मे) मेरी (मनीषाम्) बुद्धि को (चरन्तीम्) प्राप्त होती हुई (प्रयुताम्) सङ्ख्यारहित बोधों से युक्त (धेनुम्) बछड़े को पालन करनेवाली गौ के सदृश वाणी को (प्र, अविदत्) प्राप्त हो और (या) जो (धासेः) प्राणों को धारण करनेवाले अन्न की (इन्द्रः) बिजुली के सदृश (अगोपाम्) अरक्षित को (भूरि) बहुत (सद्यः) शीघ्र (चित्) ही (दुदुहे) पूर्ण करता है (तत्) उस अन्न को (अग्निः) अग्नि के सदृश वर्त्तमान पुरुष प्राप्त होवै (अस्याः) इस वाणी का (पनितारः) स्तुति वा व्यवहार करनेवाले उपदेश देवैं, उस वाणी को सब लोग प्राप्त हों ॥१॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग अधर्म के आचरण से रहित विद्या को ग्रहण करने की इच्छा पूरी करनेवाले उत्तम वाणी का प्रयोग करने और सत्यधर्म का आचरण करते हुए सबकी इच्छा को पूरी करते हैं, वे अत्यन्त सत्कार करने योग्य होवें ॥१॥

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