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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    इन्द्र॑श्च वायवेषां॒ सोमा॑नां पी॒तिम॑र्हथः। यु॒वां हि यन्तीन्द॑वो नि॒म्नमापो॒ न स॒ध्र्य॑क् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । च॒ । वा॒यो॒ इति॑ । ए॒षा॒म् । सोमा॑नाम् । पी॒तिम् । अ॒र्ह॒थः॒ । यु॒वाम् । हि । यन्ति॑ । इन्द॑वः । नि॒म्नम् । आपः॑ । न । स॒ध्र्य॑क् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रश्च वायवेषां सोमानां पीतिमर्हथः। युवां हि यन्तीन्दवो निम्नमापो न सध्र्यक् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। च। वायो इति। एषाम्। सोमानाम्। पीतिम्। अर्हथः। युवाम्। हि। यन्ति। इन्दवः। निम्नम्। आपः। न। सध्र्यक् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    हे (वायो) बल से युक्त ! आप (च) और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्यवान् (युवाम्) आप दोनों (आपः) जैसे जल (निम्नम्) नीचे के स्थल के (न) वैसे जिस प्रकार (इन्दवः) मिलनेवाले और सत्कार करने योग्य जन और (सध्र्यक्) एक साथ सत्कार करनेवाला ये सब (यन्ति) प्राप्त होते हैं (हि) उसी प्रकार आप दोनों (एषाम्) इन (सोमानाम्) ओषधियों से उत्पन्न हुए रसों के (पीतिम्) पान के (अर्हथः) योग्य हैं ॥२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे यज्ञ जलों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही विद्वान् विद्याव्यवहार के योग्य होते हैं ॥२॥

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