ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
अग्ने॑ मृ॒ळ म॒हाँ अ॑सि॒ य ई॒मा दे॑व॒युं जन॑म्। इ॒येथ॑ ब॒र्हिरा॒सद॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । मृ॒ळ । म॒हान् । अ॒सि॒ । यः । ई॒म् । आ । दे॒व॒ऽयुम् । जन॑म् । इ॒येथ॑ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने मृळ महाँ असि य ईमा देवयुं जनम्। इयेथ बर्हिरासदम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। मृळ। महान्। असि। यः। ईम्। आ। देवऽयुम्। जनम्। इयेथ। बर्हिः। आऽसदम्॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - अब आठ ऋचावाले नवमें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के सदृश होने से विद्वान् का सत्कार कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशमान ! (यः) जो आप (बर्हिः) उत्तम आसन को (आसदम्) बैठनेवाला (देवयुम्) अपने को विद्वानों की कामना कर (जनम्) प्रसिद्ध विद्वान् को (ईम्) सब प्रकार (आ, इयेथ) प्राप्त होते हो, इससे (महान्) महत्त्व से युक्त (असि) हो इससे हमें (मृळ) सुखी कीजिये ॥१॥
भावार्थ - जो पुरुष विद्वानों के सङ्ग से विद्या की कामना करता और विद्या को प्राप्त होकर मनुष्य आदिकों को सुख देता है, वही आसन आदि से प्रतिष्ठा देने योग्य होता है ॥१॥
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