ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ईळे॑ अ॒ग्निं स्वव॑सं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒त्तो वि च॑यत्कृ॒तं नः॑। रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वाज॒यद्भिः॑ प्रदक्षि॒णिन्म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइळे॑ । अ॒ग्निम् । सु॒ऽअव॑सम् । नमः॑ऽभिः । इ॒ह । प्र॒ऽस॒त्तः । वि । च॒य॒त् । कृ॒तम् । नः॒ । रथैः॑ऽइव । प्र । भ॒रे॒ । वा॒ज॒यत्ऽभिः॑ । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । म॒रुता॑म् । स्तोम॑म् । ऋ॒ध्या॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईळे अग्निं स्ववसं नमोभिरिह प्रसत्तो वि चयत्कृतं नः। रथैरिव प्र भरे वाजयद्भिः प्रदक्षिणिन्मरुतां स्तोममृध्याम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठईळे। अग्निम्। सुऽअवसम्। नमःऽभिः। इह। प्रऽसत्तः। वि। चयत्। कृतम्। नः। रथैःऽइव। प्र। भरे। वाजयत्ऽभिः। प्रऽदक्षिणित्। मरुताम्। स्तोमम्। ऋध्याम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
विषय - अब मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
जैसे (प्रसत्तः) प्रसन्न (इह) इस संसार में मैं (नमोभिः) सत्कारों से हूँ वैसे सत्कारों से (स्ववसम्) उत्तम रक्षण जिससे उस (अग्निम्) बिजुली की (ईळे) अधिक इच्छा करता और (कृतम्) किये काम को (वि, चयत्) विवेक करता हूँ और जो (मरुताम्) मनुष्यों के समूह (वाजयद्भिः) वेगवाले (रथैरिव) वाहनों के सदृश पदार्थों से (नः) हम लोगों को पहुँचाते हैं उनको मैं (प्र, भरे) धारण करता हूँ और (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा को प्राप्त करानेवाला मैं मनुष्यों की (स्तोमम्) प्रशंसा को (ऋध्याम्) बढ़ाऊँ ॥१॥
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । विद्वान् जन को चाहिये कि विद्वानों के सङ्ग से अग्नि आदि विद्या को प्रकट करा के प्रसन्नता सम्पादित करे ॥१॥
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