साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
ऋषिः - उरूचक्रिरात्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रा॒तर्दे॒वीमदि॑तिं जोहवीमि म॒ध्यंदि॑न॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य। रा॒ये मि॑त्रावरुणा स॒र्वता॒तेळे॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शं योः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तः । दे॒वीम् । अदि॑तिम् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । म॒ध्यन्दि॑ने । उत्ऽइ॑ता । सूर्य॑स्य । रा॒ये । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । स॒र्वऽता॑ता । ईळे॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । शम् । योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातर्देवीमदितिं जोहवीमि मध्यंदिन उदिता सूर्यस्य। राये मित्रावरुणा सर्वतातेळे तोकाय तनयाय शं योः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठप्रातः। देवीम्। अदितिम्। जोहवीमि। मध्यंदिने। उत्ऽइता। सूर्यस्य। राये। मित्राऽवरुणा। सर्वऽताता। ईळे। तोकाय। तनयाय। शम्। योः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
विषय - मनुष्यों को निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (मित्रावरुणा) प्राण और वायु के सदृश माता और पिता ! जैसे मैं (सर्वताता) सब के सुख देनेवाले यज्ञ में (राये) धन आदि के लिये (तोकाय) छोटे (तनयाय) कुमार के अर्थ (प्रातः) प्रातःकाल (देवीम्) श्रेष्ठ बुद्धि को (अदितिम्) अखण्डित बोध से युक्त को और (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (मध्यन्दिने) मध्याह्न (उदिता) उदित में (योः) संयुक्त (शम्) सुख को (जोहवीमि) अत्यन्त ग्रहण करता हूँ और मैं (ईळे) प्रशंसा करता हूँ, वैसे आप दोनों आचरण कीजिये ॥३॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य कुटम्ब के पालन के लिये श्रेष्ठ पुरुषों की शिक्षा और वृद्धि के लिये सर्वदा प्रयत्न करते हैं, वे विद्वानों के कुल को करते हैं ॥३॥
इस भाष्य को एडिट करें