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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
ऋषिः - उरूचक्रिरात्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पु॒रू॒रुणा॑ चि॒द्ध्यस्त्यवो॑ नू॒नं वां॑ वरुण। मित्र॒ वंसि॑ वां सुम॒तिम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रु॒ऽउ॒रुणा॑ । चि॒त् । हि । अस्ति॑ । अवः॑ । नू॒नम् । वा॒म् । व॒रु॒ण॒ । मित्र॑ । वंसि॑ । वा॒म् । सु॒ऽम॒तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरूरुणा चिद्ध्यस्त्यवो नूनं वां वरुण। मित्र वंसि वां सुमतिम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठपुरुऽउरुणा। चित्। हि। अस्ति। अवः। नूनम्। वाम्। वरुण। मित्र। वंसि। वाम्। सुऽमतिम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - अब चार ऋचावाले सत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (मित्र) मित्र (वरुण) श्रेष्ठ ! (हि) जिससे (वाम्) आप दोनों का जो (पुरूरुणा) अत्यन्त बहुत (नूनम्) निश्चित (अवः) रक्षण आदि (अस्ति) है और जिसको (चित्) निश्चित आप (वंसि) सेवन करते हैं और जो (वाम्) आप दोनों की (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को ग्रहण करता है, उन आप दोनों और उसकी हम लोग सेवा करें ॥१॥
भावार्थ - हे मनुष्यो ! जो रक्षक राजपुरुष प्रजाओं की अत्यन्त रक्षा करते हैं, वे ही प्रजापुरुषों से सेवा करने योग्य हैं ॥१॥
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