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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
मा कस्या॑द्भुतक्रतू य॒क्षं भु॑जेमा त॒नूभिः॑। मा शेष॑सा॒ मा तन॑सा ॥४॥
स्वर सहित पद पाठमा । कस्य॑ । अ॒द्भु॒त॒क्र॒तू॒ इत्य॑द्भुतऽक्रतू । य॒क्षम् । भु॒जे॒म॒ । त॒नूभिः॑ । मा । शेष॑सा । मा । तन॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा कस्याद्भुतक्रतू यक्षं भुजेमा तनूभिः। मा शेषसा मा तनसा ॥४॥
स्वर रहित पद पाठमा। कस्य। अद्भुतक्रतू इत्यद्भुतऽक्रतू। यक्षम्। भुजेम। तनूभिः। मा। शेषसा। मा। तनसा ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
विषय - उत्तमों को किसी पुरुष से भी दान कभी न ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (अद्भुतक्रतू) अद्भुत बुद्धि वा कर्मवालो ! हम लोग (तनूभिः) शरीरों से (कस्य) किसी के (यक्षम्) दान का (मा) नहीं (भुजेम) सेवन करें और (शेषसा) अन्यों के साथ वर्त्तमान हुए (मा) नहीं पालन करें और (तनसा) पौत्र आदि के सहित (मा) नहीं पालन करें ॥४॥
भावार्थ - विद्वान् जन ऐसा उपदेश करें जिससे कि किसी से दान कोई भी नहीं ग्रहण करे, वैसे ही माता और पिता से पुत्र, पौत्र आदि भी दान की रुचि न करें ॥४॥ इस सूक्त में प्राण उदान और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्तरवाँ सूक्त और अष्टम वर्ग समाप्त हुआ ॥
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