ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
आ नो॒ राधां॑सि सवितः स्त॒वध्या॒ आ रायो॑ यन्तु॒ पर्व॑तस्य रा॒तौ। सदा॑ नो दि॒व्यः पा॒युः सि॑षक्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । राधां॑सि । स॒वि॒त॒रिति॑ । स्त॒वध्यै॑ । आ । रायः॑ । य॒न्तु॒ । पर्व॑तस्य । रा॒तौ । सदा॑ । नः॒ । दि॒व्यः । पा॒युः । सि॒स॒क्तु॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो राधांसि सवितः स्तवध्या आ रायो यन्तु पर्वतस्य रातौ। सदा नो दिव्यः पायुः सिषक्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। राधांसि। सवितरिति। स्तवध्यै। आ। रायः। यन्तु। पर्वतस्य। रातौ। सदा। नः। दिव्यः। पायुः। सिसक्तु। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
विषय - मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा पालने से और पुरुषार्थ से लक्ष्मी की उन्नति करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (सवितः) सकल जगत् के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर ! आप की (स्तवध्यै) स्तुति करने को (नः) हम लोगों को (राधांसि) धन (आ, यन्तु) मिलें (पर्वतस्य) मेघ के (रातौ) देने में (रायः) धन आवें (दिव्यः) शुद्ध गुण-कर्म-स्वभाव में प्रसिद्ध हुए (पायुः) रक्षा करनेवाले आप (नः) हम लोगों को सदा (आ, सिषक्तु) सुखों से संयुक्त करें हे विद्वानो ! इस विज्ञान से सहित (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों की (सदा) सर्वदैव (पात) रक्षा करो ॥८॥
भावार्थ - जो सत्य भाव से परमेश्वर की उपासना कर न्याययुक्त व्यवहार से धन पाने को चाहते हैं और जो सदा आप्त अति सज्जन विद्वान् का सङ्ग सेवते हैं, वे दारिद्र्य कभी नहीं सेवते हैं ॥८॥ इस सूक्त में विश्वेदेवों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सैंतीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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