ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
उदु॑ तिष्ठ सवितः श्रु॒ध्य१॒॑स्य हिर॑ण्यपाणे॒ प्रभृ॑तावृ॒तस्य॑। व्यु१॒॑र्वीं पृ॒थ्वीम॒मतिं॑ सृजा॒न आ नृभ्यो॑ मर्त॒भोज॑नं सुवा॒नः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । ति॒ष्ठ॒ । स॒वि॒त॒रिति॑ । श्रु॒धि॒ । अ॒स्य । हिर॑ण्यऽपाणे । प्रऽभृ॑तौ । ऋ॒तस्य॑ । वि । उ॒र्वीम् । पृ॒थ्वीम् । अ॒मति॑म् । सृ॒जा॒नः । आ । नृऽभ्यः॑ । म॒र्त॒ऽभोज॑नम् । सु॒वा॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु तिष्ठ सवितः श्रुध्य१स्य हिरण्यपाणे प्रभृतावृतस्य। व्यु१र्वीं पृथ्वीममतिं सृजान आ नृभ्यो मर्तभोजनं सुवानः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठउत्। ऊँ इति। तिष्ठ। सवितरिति। श्रुधि। अस्य। हिरण्यऽपाणे। प्रऽभृतौ। ऋतस्य। वि। उर्वीम्। पृथ्वीम्। अमतिम्। सृजानः। आ। नृऽभ्यः। मर्तऽभोजनम्। सुवानः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - फिर वह जगदीश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ -
(हिरण्यपाणे) हित से रमणरूप व्यवहार जिसका (सवितः) वह अन्तर्यामी है जगदीश्वर ! आप (अस्य) इस जीव की किई स्तुति (श्रुधि) सुनिये (उ) और इसके हृदय में (उत्, तिष्ठ) उठिये अर्थात् उत्कर्ष से प्राप्त हूजिये और (ऋतस्य) सत्य कारण की (प्रभृतौ) अत्यन्त धारणा में (अमतिम्) अच्छे अपने रूपवाली (उर्वीम्) बहुत पदार्थयुक्त (पृथ्वीम्) पृथिवी को (वि, सृजानः) उत्पन्न करते हुए (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (मर्त्तभोजनम्) मनुष्यों को जो भोजन है उसे (आ, सुवानः) प्रेरणा देते हुए कृपा कीजिये ॥२॥
भावार्थ - जो सत्यभाव से धर्म का अनुष्ठान कर योग का अभ्यास करते हैं, उनके आत्मा में परमात्मा प्रकाशित होता है, जिस ईश्वर ने समस्त जगत् उत्पन्न कर मनुष्यादिकों का अन्नादि से हित सिद्ध किया, उसको छोड़ किसी और की उपासना मनुष्य कभी न करें ॥२॥
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