ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
ए॒ष स्य मि॑त्रावरुणा नृ॒चक्षा॑ उ॒भे उदे॑ति॒ सूर्यो॑ अ॒भि ज्मन्। विश्व॑स्य स्था॒तुर्जग॑तश्च गो॒पा ऋ॒जु मर्ते॑षु वृजि॒ना च॒ पश्य॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्यः । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । उ॒भे इति॑ । उत् । ए॒ति॒ । सूर्यः॑ । अ॒भि । ज्मन् । विश्व॑स्य । स्था॒तुः । जग॑तः । च॒ । गो॒पाः । ऋ॒जु । मर्ते॑षु । वृ॒जि॒ना । च॒ । पश्य॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्य मित्रावरुणा नृचक्षा उभे उदेति सूर्यो अभि ज्मन्। विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च गोपा ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठएषः। स्यः। मित्रावरुणा। नृऽचक्षाः। उभे इति। उत्। एति। सूर्यः। अभि। ज्मन्। विश्वस्य। स्थातुः। जगतः। च। गोपाः। ऋजु। मर्तेषु। वृजिना। च। पश्यन् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - फिर वह कैसा जगदीश्वर किसके सदृश क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो ! (एषः) (स्यः) सो यह (नृचक्षाः) मनुष्यों के कर्मों को देखनेवाला परमात्मा (उभे) दोनों प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म संसार में जैसे (ज्मन्) भूमि में (सूर्यः) सूर्य्य लोक (अभि, उत्, एति) सब ओर से उदय करता है, वैसे (विश्वस्य) सम्पूर्ण (स्थातुः) नहीं चलनेवाले और (जगतः) चलनेवाले संसार का भी (गोपाः) रक्षक वह (मर्तेषु) मनुष्यों में (ऋजु) सरलतापूर्वक (वृजिना) सेनाओं को (च) और (पश्यन्) विशेष कर के जानता हुआ (मित्रावरुणा) सब के प्राण और उदान वायु को प्रकाशित करता है ॥२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे उदय को प्राप्त हुआ सूर्य्य समीप में वर्त्तमान स्थूल जगत् को प्रकाशित करता है, वैसे अन्तर्य्यामी ईश्वर स्थूल और सूक्ष्म जगत् और जीवों को सब प्रकार से प्रकाशित करता है और सब की उत्तम प्रकार रक्षा कर के सब के कर्मों को देखता हुआ यथायोग्य फल देता है ॥२॥
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