ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 14/ मन्त्र 15
ऋषिः - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒सु॒न्वामि॑न्द्र सं॒सदं॒ विषू॑चीं॒ व्य॑नाशयः । सो॒म॒पा उत्त॑रो॒ भव॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सु॒न्वाम् । इ॒न्द्र॒ । स॒म्ऽसद॑म् । विषू॑चीम् । वि । अ॒ना॒श॒यः॒ । सो॒म॒ऽपाः । उत्ऽत॑रः । भव॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असुन्वामिन्द्र संसदं विषूचीं व्यनाशयः । सोमपा उत्तरो भवन् ॥
स्वर रहित पद पाठअसुन्वाम् । इन्द्र । सम्ऽसदम् । विषूचीम् । वि । अनाशयः । सोमऽपाः । उत्ऽतरः । भवन् ॥ ८.१४.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 14; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
विषय - वह निखिल विघ्नविनाशक है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे इन्द्र ! (सोमपाः) सकल पदार्थों के रक्षक होने के कारण (उत्तरः+भवन्) उत्कृष्टतर होता हुआ तू (असुन्वाम्) शुभकर्मविहीना (संसदम्) मानवसभा को (विषूचीम्) छिन्न-भिन्न करके (व्यनाशयः) विनष्ट कर देता है ॥१५ ॥
भावार्थ - परमात्मा न्यायकारी और महादण्डधर है । वह पापिष्ठ सभा को भी उखाड़ देता है । यह जानकर पापों का आचरण न करे, यह इसका आशय है ॥१५ ॥
टिप्पणी -
यह अष्टम मण्डल का चौदहवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥