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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 17/ मन्त्र 15
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्षीबृहती स्वरः - मध्यमः

    पृदा॑कुसानुर्यज॒तो ग॒वेष॑ण॒ एक॒: सन्न॒भि भूय॑सः । भूर्णि॒मश्वं॑ नयत्तु॒जा पु॒रो गृ॒भेन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृदा॑कुऽसानुः । य॒ज॒तः । गो॒ऽएष॑णः । एकः॑ । सन् । अ॒भि । भूय॑सः । भूर्णिम् । अश्व॑म् । न॒य॒त् । तु॒जा । पु॒रः । गृ॒भा । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृदाकुसानुर्यजतो गवेषण एक: सन्नभि भूयसः । भूर्णिमश्वं नयत्तुजा पुरो गृभेन्द्रं सोमस्य पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृदाकुऽसानुः । यजतः । गोऽएषणः । एकः । सन् । अभि । भूयसः । भूर्णिम् । अश्वम् । नयत् । तुजा । पुरः । गृभा । इन्द्रम् । सोमस्य । पीतये ॥ ८.१७.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 17; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    जो इन्द्र (पृदाकुसानुः) मनोरथों को पूर्ण करनेवाला और परमदाता है, जो (यजतः) परम यजनीय=पूजनीय है । जो (गवेषणः) गो आदि पशुओं को देनेवाला है और जो (एकः सन्) अकेला ही (भूयसः) बहुत विघ्नों का (अभि) पराभव करनेवाला है । मनुष्यगण (इन्द्रम्) उस इन्द्र को (सोमस्य+पीतये) अपनी-२ आत्मा की रक्षा के लिये (तुजा) शीघ्रगामी (गृभा) ग्रहण योग्य स्तोत्र से (पुरः) अपने-२ आगे (नयत्) लावे । जो इन्द्र (भूर्णिम्) सर्व का भरण-पोषणकर्ता और (अश्वम्) सर्वत्र व्याप्त है ॥१५ ॥

    भावार्थ - बुद्धिमान् जन केवल उसी की उपासना किया करें, क्योंकि इस जगत् का स्वामी वही है । वही सबमें व्याप्त और चेतन है ॥१५ ॥

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