ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 22
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
व॒यं तद्व॑: सम्राज॒ आ वृ॑णीमहे पु॒त्रो न ब॑हु॒पाय्य॑म् । अ॒श्याम॒ तदा॑दित्या॒ जुह्व॑तो ह॒विर्येन॒ वस्यो॒ऽनशा॑महै ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । तत् । वः॒ । स॒म्ऽरा॒जः॒ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ । पु॒त्रः । न । ब॒हु॒ऽपाय्य॑म् । अ॒श्याम॑ । तत् । आ॒दि॒त्याः॒ । जुह्व॑तः । ह॒विः । येन॑ । वस्यः॑ । अ॒नशा॑महै ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं तद्व: सम्राज आ वृणीमहे पुत्रो न बहुपाय्यम् । अश्याम तदादित्या जुह्वतो हविर्येन वस्योऽनशामहै ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । तत् । वः । सम्ऽराजः । आ । वृणीमहे । पुत्रः । न । बहुऽपाय्यम् । अश्याम । तत् । आदित्याः । जुह्वतः । हविः । येन । वस्यः । अनशामहै ॥ ८.२७.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 34; मन्त्र » 6
विषय - विद्वानों के निकट विनयवचन बोले ।
पदार्थ -
(सम्राजः) हे सबके ऊपर धर्मपूर्वक शासन करनेवाले हे महाधिपति विद्वानो ! (तत्) जिस हेतु आप परमोदार हैं, उस हेतु (वयम्+वः+आवृणीमहे) क्या हम भी आपके निकट माँग सकते हैं ? (पुत्रः+न+बहुपाय्यम्) जैसे पुत्र अपने पिता के निकट बहुत से भोज्य, पेय, लेह्य, चोष्य और परिधेय वस्तु माँगा करता है, (आदित्याः) हे अखण्ड व्रत हे सत्यप्रकाशको ! (हविः+जुह्वतः) शुभकर्म करते हुए हम (तत्+अश्याम) क्या उस धन को पा सकते हैं, (येन) जिससे (वस्यः) धनिकत्व को (अनशामहै) प्राप्त करें अर्थात् हम भी संसार में धनसम्पन्न होवें ॥२२ ॥
भावार्थ - प्रथम हम ऐहलौकिक और पारलौकिक कर्मों में परमनिपुण होवें, पूर्ण योग्यता प्राप्त करें, तब ही हम पुरस्कार के भी अधिकारी होवेंगे । विद्वानों के निकट सदा नम्र होकर विद्याधन ग्रहण करें ॥२२ ॥
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