ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यदि॑न्द्र॒ प्रागपा॒गुद॒ङ्न्य॑ग्वा हू॒यसे॒ नृभि॑: । सिमा॑ पु॒रू नृषू॑तो अ॒स्यान॒वेऽसि॑ प्रशर्ध तु॒र्वशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इ॒न्द्र॒ । प्राक् । अपा॑क् । उद॑क् । न्य॑क् । वा॒ । हू॒यसे॑ । नृऽभिः॑ । सिम॑ । पु॒रु । नृऽसू॑तः । अ॒सि॒ । आन॑वे । अ॒सि॒ । प्र॒ऽश॒र्ध॒ । तु॒र्वशे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्र प्रागपागुदङ्न्यग्वा हूयसे नृभि: । सिमा पुरू नृषूतो अस्यानवेऽसि प्रशर्ध तुर्वशे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्र । प्राक् । अपाक् । उदक् । न्यक् । वा । हूयसे । नृऽभिः । सिम । पुरु । नृऽसूतः । असि । आनवे । असि । प्रऽशर्ध । तुर्वशे ॥ ८.४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - किसका अनुकूल ईश्वर होता है, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(इन्द्र) हे इन्द्रवाच्य परमदेव ! (यद्) यद्यपि तू (प्राक्) पूर्व दिशा में (अपाक्) पश्चिम दिशा में (उदक्) उत्तर दिशा में (वा) और (न्यक्) नीचे अधस्थल में या दक्षिण दिशा में अर्थात् सर्वत्र (नृभिः) मनुष्यों से (हूयसे) निमन्त्रित और पूजित होता है । तथापि (सिम) हे सर्वश्रेष्ठ देव ! (आनवे) तेरे अनुकूल चलनेवाले उपासक के लिये (पुरु) बहुधा=वारंवार (नृषूतः+असि) विद्वान् मनुष्य द्वारा तू प्रेरित होता है और (प्रशर्ध) हे निखिलविघ्नविनाशक देव (तुर्वशे) शीघ्र वश होनेवाले जन के लिये भी तू (असि) प्रेरित होता है । अर्थात् अनुकूल और वशीभूत जनों के ऊपर तू सदा कृपा बनाए रख, ऐसी स्तुति सब ही ज्ञानी पुरुष करते हैं और उनके ही अनुकूल तू सदा रहता है अर्थात् जो तेरी आज्ञा के अनुकूल और वशीभूत हैं, वे ही तेरे प्रिय हो सकते हैं, अन्य नहीं ॥१ ॥
भावार्थ - हे मेधाविजनो ! इस प्रकार आप जानिये । यद्यपि सब जन सर्वत्र निज-२ मनोरथ की पूर्ति के लिये उस ईश की स्तुति और गान करते हैं और उससे माँगते हैं, तथापि वह सब पर प्रसन्न नहीं होता, क्योंकि वह भावग्राही है । जो उसकी आज्ञा में सदा रहता, पापों से निवृत्त होता, भूतों के ऊपर दया करता, वही अनुग्राह्य होता है ॥१ ॥
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