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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ घा॒ ये अ॒ग्निमि॑न्ध॒ते स्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरा॑नु॒षक् । येषा॒मिन्द्रो॒ युवा॒ सखा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । घ॒ । ये । अ॒ग्निम् । इ॒न्ध॒ते । स्तृ॒णन्ति॑ । ब॒र्हिः । आ॒नु॒ष॒क् । येषा॑म् । इन्द्रः॑ । युवा॑ । सखा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ घा ये अग्निमिन्धते स्तृणन्ति बर्हिरानुषक् । येषामिन्द्रो युवा सखा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । घ । ये । अग्निम् । इन्धते । स्तृणन्ति । बर्हिः । आनुषक् । येषाम् । इन्द्रः । युवा । सखा ॥ ८.४५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 42; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (ये) जो मानव (आ) अच्छे प्रकार (घ) सिद्धान्त निश्चित करके अग्निहोत्र कर्म के लिये (अग्निम्+इन्धते) अग्नि को प्रज्वलित करते हैं और जो अतिथियों, दीनों तथा रोगी प्रभृतियों के लिये (आनुषक्) प्रेमपूर्वक (बर्हिः) कुशासन (स्तृणन्ति) बिछाते हैं और (येषाम्) जिनका (इन्द्रः) आत्मा (युवा) युवा अर्थात् कार्य्य करने में समर्थ और (सखा) मित्र है और जिनका आत्मा अपने वश में और ईश्वराभिमुख है । दुष्टाचारी दुर्व्यसनी नहीं । वे ही धन्य हैं ॥१ ॥

    भावार्थ - मनुष्यमात्र को उचित है कि वह प्रतिदिन अग्निहोत्र करे और अतिथिसेवा के लिये कभी मुख न मोड़े और अपने आत्मा को दृढ़ विश्वासी और मित्र बना रक्खे । आत्मा को कभी उच्छृङ्खल न बनावे ॥१ ॥

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