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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 48 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - सोमः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒न्तश्च॒ प्रागा॒ अदि॑तिर्भवास्यवया॒ता हर॑सो॒ दैव्य॑स्य । इन्द॒विन्द्र॑स्य स॒ख्यं जु॑षा॒णः श्रौष्टी॑व॒ धुर॒मनु॑ रा॒य ऋ॑ध्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरिति॑ । च॒ । प्र । अगाः॑ । अदि॑तिः । भ॒वा॒सि॒ । अ॒व॒ऽया॒ता । हर॑सः । दैव्य॑स्य । इन्दो॒ इति॑ । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । जु॒षा॒णः । श्रौष्टी॑ऽइव । धुर॑म् । अनु॑ । रा॒ये । ऋ॒ध्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तश्च प्रागा अदितिर्भवास्यवयाता हरसो दैव्यस्य । इन्दविन्द्रस्य सख्यं जुषाणः श्रौष्टीव धुरमनु राय ऋध्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिति । च । प्र । अगाः । अदितिः । भवासि । अवऽयाता । हरसः । दैव्यस्य । इन्दो इति । इन्द्रस्य । सख्यम् । जुषाणः । श्रौष्टीऽइव । धुरम् । अनु । राये । ऋध्याः ॥ ८.४८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (इन्दो) हे अन्नश्रेष्ठ ! (च) पुनः जब तू (अन्तः) हृदय के भीतर (प्रागाः) जाता है, तब तू (अदितिः) अदीन=उदार होता है । पुनः (दैव्यस्य+हरसः) दिव्य अर्थात् अधिक क्रोध का भी (अवयाता) दूर करनेवाला होता है । पुनः (इन्द्रस्य) जीव का (सख्यम्) हित (जुषाणः) सेवता हुआ (राये+अनु+ऋध्याः) ऐश्वर्य्य की ओर ले जाता है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(श्रौष्टी+इव+धुरम्) जैसे शीघ्रगामी अश्व रथ को अभिमत प्रदेश में ले जाता है ॥२ ॥

    भावार्थ - प्रथम यह सदा स्मरण रखना चाहिये कि जड़ वस्तु को सम्बोधित कर चेतनवत् वर्णन करने की रीति वेद में है । अतः पदानुसार ही इसका अर्थ सुगमता के लिये किया गया है । इसी को प्रथम पुरुषवत् वर्णन समझ लीजिये । अब आशय यह है−जब वैसे मधुमान् अन्न शरीर के आभ्यन्तर जाते हैं, तो इनसे अनेक सुगुण उत्पन्न होते हैं । इनसे शुद्ध रक्त और माँस आदि बनते हैं । शरीर की दुर्बलता नहीं रहती । मन प्रसन्न रहता है । परन्तु जब पेट में अन्न नहीं रहता या अन्न के अभाव से शरीर कृश हो जाता है, तब क्रोध भी बढ़ जाता है । वह क्रोध भी अन्न की प्राप्ति से निवृत्त हो जाता है । शरीर नीरोग और पुष्ट रहने से दिन-दिन धनोपार्जन में मन लगता है । अतः कहा जाता है कि अन्न क्रोध को दूर करता है । इत्यादि ॥२ ॥

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