ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
प॒दा प॒णीँर॑रा॒धसो॒ नि बा॑धस्व म॒हाँ अ॑सि । न॒हि त्वा॒ कश्च॒न प्रति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप॒दा । प॒णी॑न् । अ॒रा॒धसः॑ । नि । बा॒ध॒स्व॒ । म॒हान् । अ॒सि॒ । न॒हि । त्वा॒ । कः । च॒न । प्रति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पदा पणीँरराधसो नि बाधस्व महाँ असि । नहि त्वा कश्चन प्रति ॥
स्वर रहित पद पाठपदा । पणीन् । अराधसः । नि । बाधस्व । महान् । असि । नहि । त्वा । कः । चन । प्रति ॥ ८.६४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
विषय - N/A
पदार्थ -
हे इन्द्र ! (अराधसः) धनसम्पन्न होने पर जो शुभकर्म के लिये धन खर्च नहीं करते, उन (पणीन्) लुब्ध पुरुषों को (पदानि) चरणाघात से (नि+बाधस्व) दूर कर दे । (महान्+असि) तू महान् है, (हि) क्योंकि (कः+चन) कोई भी मनुष्य (त्वा+प्रति) तुझसे बढ़कर (न) समर्थ नहीं है ॥२ ॥
भावार्थ - पणि=प्रायः वाणिज्य करनेवाले के लिये आता है । यह भी देखा गया है कि प्रायः वाणिज्यकर्त्ता धनिक होते हैं । किन्तु जो धन पाकर व्यय नहीं करते, ऐसे लोभी पुरुष को वेदों में पणि कहते हैं । धनसंचय करके क्या करना चाहिये, यह विषय यद्यपि सुबोध है, तथापि सम्प्रति यह जटिल सा हो गया है । देशहित कार्य्य में धनव्यय करना, यह निर्वाद है, किन्तु देशहित भी क्या है, इसका जानना कठिन है ॥२ ॥
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