ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 12
नपा॑तो दु॒र्गह॑स्य मे स॒हस्रे॑ण सु॒राध॑सः । श्रवो॑ दे॒वेष्व॑क्रत ॥
स्वर सहित पद पाठनपा॑तः । दुः॒ऽगह॑स्य । मे॒ । स॒हस्रे॑ण । सु॒ऽराध॑सः । श्रवः॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒क्र॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नपातो दुर्गहस्य मे सहस्रेण सुराधसः । श्रवो देवेष्वक्रत ॥
स्वर रहित पद पाठनपातः । दुःऽगहस्य । मे । सहस्रेण । सुऽराधसः । श्रवः । देवेषु । अक्रत ॥ ८.६५.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 6
विषय - N/A
पदार्थ -
हे ईश ! यद्यपि मैं (दुर्गहस्य) दुःख में निमग्न हूँ, तथापि (मे) मेरे (नपातः) पौत्र, दौहित्र आदि जन (सहस्रेण) आपके लिए हुए अपरिमित धन से (सुराधसः) धनसम्पन्न होवें और (देवेषु) श्रेष्ठ पुरुषों में वे (श्रवः) यश, अन्न, पशु, हिरण्य और आपकी कृपा (अक्रत) पावें ॥१२ ॥
भावार्थ - इस मन्त्र से अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और दौहित्रादिकों को सुखी होने के लिये ईश्वर से प्रार्थना करें ॥१२ ॥
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