ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
ऋषिः - मत्स्यः साम्मदो मान्यो वा मैत्रावरुणिर्बहवो वा मत्स्या जालनध्दाः
देवता - आदित्याः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मि॒त्रो नो॒ अत्यं॑ह॒तिं वरु॑णः पर्षदर्य॒मा । आ॒दि॒त्यासो॒ यथा॑ वि॒दुः ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्रः । नः॒ । अति॑ । अं॒ह॒तिम् । वरु॑णः । प॒र्ष॒त् । अ॒र्य॒मा । आ॒दि॒त्यासः॑ । यथा॑ । वि॒दुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्रो नो अत्यंहतिं वरुणः पर्षदर्यमा । आदित्यासो यथा विदुः ॥
स्वर रहित पद पाठमित्रः । नः । अति । अंहतिम् । वरुणः । पर्षत् । अर्यमा । आदित्यासः । यथा । विदुः ॥ ८.६७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 67; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 51; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 51; मन्त्र » 2
विषय - N/A
पदार्थ -
(मित्रः) ब्राह्मणप्रतिनिधि (वरुणः) क्षत्रियप्रतिनिधि (अर्य्यमा) वैश्यप्रतिनिधि (आदित्यासः) और सूर्य्यवत् प्रकाशमान और दुःखहरणकर्ता अन्यान्य सभासद् (यथा+विदुः) जैसा जानते हों या जानते हैं, उस रीति से (नः) हम प्रजागणों के (अंहतिम्) क्लेश, उपद्रव, दुर्भिक्ष, पाप और इस प्रकार के निखिल विघ्नों को (अति+पर्षद्) अत्यन्त दूर ले जाएँ ॥२ ॥
भावार्थ - मित्र=जो स्नेहमय और प्रेमागार हो । वरुण=जो न्यायदृष्टि से दण्ड दे और सत्यता का स्तम्भ हो । अर्य्यमा=अर्य्य=वैश्य, मा=माननीय=वैश्यों का माननीय । यद्वा न्याय के लिये जिसके निकट लोग पहुँचें, वह अर्य्यमा=अभिगमनीय । अंहति=जो प्राप्त होकर प्रजाओं का हनन करे, जिसका आगमन असह्य हो । सभासद् वे हों, जो बड़े बुद्धिमान्, बड़े परिश्रमी, बड़े उद्योगी, सत्यवादी, निर्लोभ और परहितशक्त हों ॥२ ॥
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