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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 7
    ऋषिः - पुरुहन्मा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    न सी॒मदे॑व आप॒दिषं॑ दीर्घायो॒ मर्त्य॑: । एत॑ग्वा चि॒द्य एत॑शा यु॒योज॑ते॒ हरी॒ इन्द्रो॑ यु॒योज॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । सी॒म् । अदे॑वः । आ॒प॒त् । इष॑म् । दी॒र्घा॒यो॒ इति॑ दीर्घऽआयो । मर्त्यः॑ । एत॑ऽग्वा । चि॒त् । यः । एत॑शा । यु॒योज॑ते । हरी॒ इति॑ । इन्द्रः॑ । यु॒योज॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सीमदेव आपदिषं दीर्घायो मर्त्य: । एतग्वा चिद्य एतशा युयोजते हरी इन्द्रो युयोजते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । सीम् । अदेवः । आपत् । इषम् । दीर्घायो इति दीर्घऽआयो । मर्त्यः । एतऽग्वा । चित् । यः । एतशा । युयोजते । हरी इति । इन्द्रः । युयोजते ॥ ८.७०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (दीर्घायो) हे चिरन्तन हे नित्यसनातन देव ! (अदेवः) जो तेरी उपासना प्रार्थना आदि से रहित (मर्त्यः) मनुष्य है, वह (सीम्+इषम्) किसी प्रकार के अन्नों को (न+आपत्) न पावे । (यः) जो तू (एतग्वा+चित्) नाना वर्णयुक्त (एतशा) इन दृश्यमान स्थावर और जङ्गमरूप संसारों को (युयोजते) कार्य्य में लगाकर शासन कर रहा है । इसी को अन्य शब्दों से विस्पष्ट करते हैं, (इन्द्रः+हरी+युयोजते) परमात्मा इन परस्पर हरणशील द्विविध संसारों को नियोजित कर रहा है । उस परमपिता को जो नहीं भजता है, उसका कल्याण कैसे हो सकता है ॥७ ॥

    भावार्थ - अदेव−इससे यह दिखलाया गया है कि जो ईश्वरोपासना से रहित है, वह इसलोक और परलोक दोनों में दुःखभागी होता है ॥७ ॥

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