ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
न॒ह्य१॒॑न्यं ब॒ळाक॑रं मर्डि॒तारं॑ शतक्रतो । त्वं न॑ इन्द्र मृळय ॥
स्वर सहित पद पाठन॒हि । अ॒न्यम् । ब॒ला । अक॑रम् । म॒र्डि॒तार॑म् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नह्य१न्यं बळाकरं मर्डितारं शतक्रतो । त्वं न इन्द्र मृळय ॥
स्वर रहित पद पाठनहि । अन्यम् । बला । अकरम् । मर्डितारम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । त्वम् । नः । इन्द्र । मृळय ॥ ८.८०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
विषय - N/A
पदार्थ -
(शतक्रतो) हे अनन्तकर्म्मा सर्वशक्तिमान् परमात्मन् ! तुझसे (अन्यं) दूसरा कोई (मर्डितारम्) सुखकारी देव (नहि) नहीं है । (अकरं) यह मैं अच्छी तरह से देखता और सुनता हूँ । (बळा) यह सत्य है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है । हे (इन्द्र) इन्द्र ! इस हेतु (नः) हम लोगों को (त्वं) तू (मृळय) सुखी बना ॥१ ॥
भावार्थ - ईश्वर ही जीवमात्र का सुखकारी होने के कारण सेव्य और स्तुत्य है ॥१ ॥
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