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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
    ऋषिः - एकद्यूर्नौधसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    किम॒ङ्ग र॑ध्र॒चोद॑नः सुन्वा॒नस्या॑वि॒तेद॑सि । कु॒वित्स्वि॑न्द्र ण॒: शक॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । अ॒ङ्ग । र॒ध्र॒ऽचोद॑नः । सु॒न्वा॒नस्य॑ । अ॒वि॒ता । इत् । अ॒सि॒ । कु॒वित् । सु । इ॒न्द्र॒ । नः॒ । शकः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमङ्ग रध्रचोदनः सुन्वानस्यावितेदसि । कुवित्स्विन्द्र ण: शक: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम् । अङ्ग । रध्रऽचोदनः । सुन्वानस्य । अविता । इत् । असि । कुवित् । सु । इन्द्र । नः । शकः ॥ ८.८०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 80; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 35; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अङ्ग) हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (किम्) मैं तुझसे क्या निवेदन करूँ, तू स्वयं (रध्रचोदनः) दीनों का पालक है और (सुन्वानस्य) उपासक जनों का (अविता+इत्) सदा रक्षक ही है । क्या (नः) हम लोगों को (इन्द्र) हे इन्द्र ! (कुवित्) बहुधा (सु) अच्छे प्रकार (शकः) समर्थ बनावेगा ॥३ ॥

    भावार्थ - वह देव दीनों और उपासकों की रक्षा किया करता है, अतः क्या वह हमारी रक्षा न करेगा ॥३ ॥

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