अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सूक्त - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - रुद्र सूक्त
शिं॒शु॒मारा॑ अजग॒राः पु॑री॒कया॑ ज॒षा मत्स्या॑ रज॒सा येभ्यो॒ अस्य॑सि। न ते॑ दू॒रं न प॑रि॒ष्ठास्ति॑ ते भव स॒द्यः सर्वा॒न्परि॑ पश्यसि॒ भूमिं॒ पूर्व॑स्माद्धं॒स्युत्त॑रस्मिन्समु॒द्रे ॥
स्वर सहित पद पाठशिं॒शु॒मारा॑: । अ॒ज॒ग॒रा: । पु॒री॒कथा॑: । ज॒षा: । मत्स्या॑: । र॒ज॒सा: । येभ्य॑: । अस्य॑सि । न । ते॒ । दू॒रम् । न । प॒रि॒ऽस्था । अ॒स्ति॒ । ते॒ । भ॒व॒ । स॒द्य: । सर्वा॑न् । परि॑ । प॒श्य॒सि॒ । भूमि॑म् । पूर्व॑स्मात् । हं॒सि॒ । उत्त॑रस्मिन् । स॒मु॒द्रे ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
शिंशुमारा अजगराः पुरीकया जषा मत्स्या रजसा येभ्यो अस्यसि। न ते दूरं न परिष्ठास्ति ते भव सद्यः सर्वान्परि पश्यसि भूमिं पूर्वस्माद्धंस्युत्तरस्मिन्समुद्रे ॥
स्वर रहित पद पाठशिंशुमारा: । अजगरा: । पुरीकथा: । जषा: । मत्स्या: । रजसा: । येभ्य: । अस्यसि । न । ते । दूरम् । न । परिऽस्था । अस्ति । ते । भव । सद्य: । सर्वान् । परि । पश्यसि । भूमिम् । पूर्वस्मात् । हंसि । उत्तरस्मिन् । समुद्रे ॥२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(शिंशुमाराः) तारा मण्डल, (अजगराः) बड़े सांप, (पुरीकयाः) पुरीकय, (जषाः= झषाः) बड़ी मछलियां, (मत्स्याः) छोटी मछलियां, (येभ्यः) जिन के लिये, (रजसा) निज ज्योतिर्मय स्वरूप द्वारा, (अस्यसि) तू ज्योति फैंक रहा है, प्रदान कर रहा है। (भव) हे सृष्ट्युत्पादक ! (ते) तेरे लिये, (न दूरम्) कोई दूर नहीं, (ते) तेरे लिये (न परिष्ठा अस्ति) कोई ऐसे वस्तु नहीं जिसे तू वर्जित कर के स्थित है, अर्थात् जो तेरी व्याप्ति से वर्जित१ है। (सर्वान्) सब वस्तुओं को (सद्यः) शीघ्र अर्थात् एक-उन्मेष में (परि पश्यसि) पूर्णतया तू देखता है, (भूमिम्) और समग्र भूमि को एक-उन्मेष में देखता है। (पूर्वस्मात्) पूर्व के समुद्र से (उत्तरस्मिन्) उत्तर के (समुद्र) समुद्र में (सद्यः) शीघ्र अर्थात् तत्काल (हंसि) तू पहुंच जाता है।
टिप्पणी -
[शिंशुमाराः= शिंशुमार आदि पार्थिव प्राणी प्रतीत नहीं होते, अपितु ये द्युलोकस्थ तारामण्डल हैं। जैसे कि मेष, वृष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, मकर, मीन, ये राशियां पशुनाम वाली हैं, इसी प्रकार शिंशुमार आदि मन्त्र पठित नाम भी दिविष्ठ तारा मण्डल प्रतीत होते हैं। शिंशुमार२ तारा मण्डल है। शिंशुमार यद्यपि एक मण्डल है। परन्तु इस मण्डल में नाना तारा है। ताराओं की बहुत्व संख्या के कारण मन्त्र में "शिंशुमाराः" बहुवचन है। शिशुमारमण्डल =Ursa minar अर्थात् लघु सप्तर्षि या लघु ऋक्षः तथा ध्रुवमध्य कहते हैं। इस में ७ चमकते तारे हैं। देखो पृ० १८९, Popular Hindu Astronomy (कालिनाथ मुकर जी) तथा नक्शा नं० १ के केन्द्रियवृत्त में। अजगराः३ = महाकाय सर्प। ये द्युलोक में नाना हैं। ये स्वाकृतियों में भी नाना है, और निज ताराओं की भी दृष्टि से नाना हैं। यथा (१) तक्षक-तारामण्डल (Draco) जो कि शिंशुमार-मण्डल के समीप कुण्डली में स्थित है, और जो सप्तर्षिमण्डल के समीप है। (२) सर्पधारिमण्डल, यह तुला राशि के पूर्व में तथा आकाश गङ्गा के पश्चिम में है (Ophinchees)। (३) ह्रद सर्पमण्डल जो कि १४० डिग्री से २२० डिग्री तक फैला हुआ है, और जिस की पूंछ तुलाराशि को छूती है (The water make, या Hydra)। इस का मुख मिथुनराशि के समीप है, और पूंछ तुलाराशि के समीप तक गई है। पुरीकयाः४= इस तारामण्डल का स्वरूप अनुसन्धेय है। जषाः५= झषाः। ये बृहदाकार मछली है जिसे मीन राशि कहते हैं, इस में रेवती-नक्षत्र है। मत्स्याः६ = (अ) दक्षिण मत्स्य (Fishes Australin)। यह कुम्भः राशि के दक्षिण में और मकर-राशि के आग्नेयी दिशा में है; आग्नेयी=दक्षिण-पूर्व की अवान्तर दिशा। (इ) पतत्रि-मत्स्य (Fisces volans or Flying fish)। इन सब के चित्र "Popular Hindu Astronomy में दिये हैं। इन का चित्रपट संलग्न है। रजसा="ज्योतीरज उच्यते" (निरुक्त ४।३।१९)। अर्थात् रजस् का अर्थ है "ज्योतिः"। मन्त्र में "रजसा" का अभिप्राय है कि हे भव ! तू निज ज्योतिर्मय स्वरूप द्वारा निज ज्योति को इन द्युलोकस्थ तारा मण्डलों में फैंक रहा है, प्रक्षिप्त कर रहा है। यथा "तस्य भासा सर्वमिदं विभाति" (मुण्ड० उप० २।२।१०)। वैदिक सिद्धान्तानुसार इन सब की ज्योतियों में परमेश्वरीय ज्योति ही चमक रही है। हंसि=हन् हिंसागत्योः। हंसि में हन् धातु गत्यर्थक है। पूर्वस्मात् उत्तरस्मिन् समुद्रे = पूर्व समुद्र का सम्बन्धी पश्चिम समुद्र है, न कि उत्तर दिशावर्ती समुद्र। इस वर्णन पर अनुसंधान अपेक्षित है]। [१. परिष्ठा=परि (अपपरी वर्जने) + ष्ठा (स्था) “परिवर्ज्यः स्थितिः”। "न दूरं न परिष्ठा" अथवा तेरे सम्बन्ध में दूर और समीप का प्रश्न नहीं, क्योंकि तू सर्वव्यापक है। अथवा तेरे मार्ग में कोई बाधारूप में स्थित नहीं। २. संलग्न चित्र नं० १ में "शिंशुमार" तारा मण्डल मध्यवर्ती केन्द्रिय-वृत्त में है, इसे चित्र नं० १ में शिशुमार शब्द द्वारा दर्शाया है। डिग्री १९० से डिग्री २७० की रेखाएं उत्तर की ओर जाती हुई जहां केन्द्रिय-वृत्त को स्पर्श करती है, वहां शिशुमार तारामण्डल की स्थिति है। ४. एक महाकाय सर्प "तक्षक" है, जो कि शिंशुमार तारामण्डल के दक्षिण में कुण्डलि मारे लेटा पड़ा है, और २१० डिग्री और ३०० डिग्री तक की रेखाओं में फैला हुआ है। दूसरा महाकाय सर्प है "ह्रदसर्प मण्डल" जो कि चित्र नं० २ में १४० डिग्री से २२० डिग्री के मध्य में तुलाराशि तक फैला हुआ है। तीसरा महाकाय सर्प है "सर्पधारिमण्डल" जोकि चित्र नं० २ में डिग्री २४० से डिग्री २७५ के लगभग तक फैला हुआ है। ४. पुरीकयाः = पुलीकयाः (सायण)। सम्भवतः पुलिरिकया = Snaks (आप्टे), लघुकाय, सर्पाः। ५. यह मीन राशि है। मीन= मच्छली। तथा “तिमि” तारामण्डल। तिमि =मछली। लेटिन भाषा में इसे cetus, तथा अंग्रेजी में इसे Seamonster कहते हैं। ये दो बृहदाकार मछलियां है। मीन राशि तो प्रसिद्ध राशि है, जो कि कुम्भ राशि के पूर्व में और मेष राशि के समीप है। "तिमि” को चित्र नं० २ में शून्य डिग्री से ३५ डिग्री के भीतर दर्शाया है। ६. मत्स्याः, यह छोटी मछली है, यथा Gisces Australin" (दक्षिण मीन मण्डल) चित्र नं० २ में डिग्री ३३० और डिग्री ३४० के मध्य में, कुम्भ राशि नीचे हैं। Gisces vdans= flying fish चित्र में नहीं है।]