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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त्प्रत्यहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। प्रति॒सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन्प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । प्रति॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । प्रति॑ । सूर्य॑स्य । पु॒रु॒ऽधा । च॒ । र॒श्मीन् । प्रति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । त॒ता॒न॒ ॥१.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यग्निरुषसामग्रमख्यत्प्रत्यहानि प्रथमो जातवेदाः। प्रतिसूर्यस्य पुरुधा च रश्मीन्प्रति द्यावापृथिवी आ ततान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । प्रति । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । प्रति । सूर्यस्य । पुरुऽधा । च । रश्मीन् । प्रति । द्यावापृथिवी इति । आ । ततान ॥१.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 28

    भाषार्थ -
    (प्रथमः) अनादि, (जातवेदाः) प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ में विद्यमान, प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ का ज्ञाता, वेदप्रदाता (अग्निः) ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर, कभी तो (उषसामग्रम्) उषाकाल के प्रारम्भ में (प्रति अख्यत्) प्रत्यक्ष हो जाता है, कभी (अहानि) दिनों को लक्ष्य कर (प्रति) प्रत्यक्ष हो जाता है, कभी (सूर्यस्य पुरुधा रश्मीन्) नाना शिक्षाओं में फैली सूर्य की रश्मियों को लक्ष्य कर (प्रति) प्रत्यक्ष हो जाता है। उस परमेश्वर ने (द्यावापृथिवी) द्यूलोक और पृथिवी लोक को (प्रति आ ततान) प्रत्यक्ष रूप में सर्वत्र फैलाया है।

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