अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 61
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒त ए॒तउ॒दारु॑हन्दि॒वस्पृ॒ष्ठान्यारु॑हन्। प्र भू॒र्जयो॒ यथा॑ प॒था द्यामङ्गि॑रसोय॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒त: । ए॒ते । उत् । आ । अ॒रु॒ह॒न् । दि॒व: । पृ॒ष्ठानि॑ । आ । अ॒रु॒ह॒न् । प्र । भू॒:ऽजय॑: । यथा॑ । पथा॑ । द्याम् । अङ्गि॑रस: । य॒यु: ॥१.६१॥
स्वर रहित मन्त्र
इत एतउदारुहन्दिवस्पृष्ठान्यारुहन्। प्र भूर्जयो यथा पथा द्यामङ्गिरसोययुः ॥
स्वर रहित पद पाठइत: । एते । उत् । आ । अरुहन् । दिव: । पृष्ठानि । आ । अरुहन् । प्र । भू:ऽजय: । यथा । पथा । द्याम् । अङ्गिरस: । ययु: ॥१.६१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 61
भाषार्थ -
(इतः) यहां से (एते) ये अङ्गिरा आदि (उद् आरुहन्) ऊपर को चढ़े। (दिवः) द्युलोक की (पृष्ठानि) पीठों पर (आरुहन) चढ़ गए। (भूर्जयः) रजोगुण और तमोगुण का भर्जन करनेवाले योगी (यथा) जैसे (पथा) योगमार्ग से (द्याम्) द्युलोक तक (प्रययुः) पहुंचे, इसी प्रकार (अङ्गिरसः) नाना विद्याओं के अङ्गों-प्रत्यङ्गों के जाननेवाले वैज्ञानिक, विज्ञानमार्ग द्युलोक तक पहुंचे।
टिप्पणी -
[मन्त्र के दो अभिप्राय है- आध्यात्मिक और आधिदैविक। योग की दृष्टि से ऊपर चढ़ने का अभिप्राय है- शारीरिक चक्रों में से नीचे के चक्र से लेकर ऊपर के अन्तिम चक्र सहस्रारचक्र पर चढ़ना, और तदनन्तर मुक्त हो जाना। ये चक्र निम्नलिखित हैं। मूलाधारचक्र गुदा के समीप, स्वाधिष्ठानचक्र कूल्हों में, मणिपूरचक्र नाभि के पीछे, अनाहतचक्र हृदय के समीप, विशुद्धचक्र कण्ठ के पीछे, आज्ञाचक्र दो भ्रुवों के मध्यस्थान में, सहस्रारचक्र मस्तिष्क में। ये सारे चक्र पृष्ठवंश की सुषुम्णा नाड़ी में हैं। प्रायः इन सात चक्रों का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद में ८ चक्र कहे हैं- "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या" (१०।२।३१)। आठवां चक्र, चक्र ६ और ७ के मध्य स्थान में है। योगी इन चक्रों में ध्यान-प्रकर्ष द्वारा, ऊपर-ऊपर के चक्रों पर आरोहण करता है। और अन्त में "दिव" अर्थात् मस्तिष्क के सहस्रारचक्र में स्थित होकर, कालानुसार इस सूर्य द्वारा मुक्त होकर परमेश्वर में विचरता है। दिव्= मस्तिष्क या मूर्धा - "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२)। दिवस्पृष्ठानि= दिव् का अभिप्राय मस्तिष्क अर्थात् मूर्धा है। इस में तीन चक्र हैं- आज्ञाचक्र, सहस्रारचक्र और इन दोनों के मध्य में विशुद्धचक्र; या विशुद्धचक्र आज्ञाचक्र और सहस्रारचक्र। इन में से प्रत्येक की पीठ पर सवार हो, अगले-अगले चक्रों की पीठों पर चढ़ता जाता है योगी। मूर्धा के तीन चक्रों की दृष्टि से उसे "तिस्रः दिवः" भी कहा जाता है। यह 'मूर्धा' लोकविभाग की दृष्टि से तृतीय-लोक भी कहा गया है। यथा-"शीर्षलोकं तृतीयकम्" (अथर्व० १९।३९।१०)। सुषुम्णा नाड़ी की दृष्टि से गुदा से लेकर छाती के नीचे तक है पृथिवीलोक; छाती में है अन्तरिक्षलोक, जिस में कि वायु तथा रक्तजल रहता है; और छाती के ऊपर का भाग है द्युलोक, जिस में कि ज्ञान का दिव्यप्रकाश निवास करता है। आधिदैविक दृष्टि से "आङ्गिरस" अर्थात् वैज्ञानिक लोग विज्ञान द्वारा इस भूमि से उठकर द्युलोक के लोकों तक आरोहण करते हैं। चन्द्र ग्रहों तथा नक्षत्रों तक प्रयाण करते हैं। द्याम् = आधिदैविक दृष्टि से प्रकाशमान द्युलोक, और आध्यात्मिक दृष्टि से सिर या मस्तिष्क- 'शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत' (यजु० ३१।१३)। अगले मन्त्रों में अन्तरिक्षसद् पृथिवीषद् तथा दिविषद् पितरों का वर्णन है। आध्यात्मिक दृष्टि में पृथिवीषद् पितर हैं सामान्य पितर, जो खान-पान आदि सांसारिक व्यवहारों से ऊपर नहीं उठ सके। अन्तरिक्षसद् पितर वे हैं, जो कि प्राणायामाभ्यासी हृदय में ध्यान लगाने का अभ्यास कर रहे हैं। तथा दिविषद् पितर वे हैं, जो कि आज्ञाचक्र तथा सहस्रारचक्र की ऊंचाई तक पहुंच गये हैं। इसी प्रकार आधिदैविक दृष्टि से पृथिवीषद् पितर पृथिवी में विहार करनेवाले; अन्तरिक्षसद् विमान आदि द्वारा अन्तरिक्ष में आने-जानेवाले; तथा दिविषद् चन्द्र आदि लोकों तक प्रयाण करनेवाले हैं ॥