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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - सुरक्षा सूक्त
यत्ते त॒नूष्वन॑ह्यन्त दे॒वा द्युरा॑जयो दे॒हिनः॑। इन्द्रो॒ यच्च॒क्रे वर्म॒ तद॒स्मान्पा॑तु वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। ते। त॒नूषु॑। अन॑ह्यन्त। दे॒वाः। द्युऽरा॑जयः। दे॒हिनः॑। इन्द्रः॑। यत्। च॒क्रे। वर्म॑। तत्। अ॒स्मान्। पा॒तु॒। वि॒श्वतः॑ ॥२०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते तनूष्वनह्यन्त देवा द्युराजयो देहिनः। इन्द्रो यच्चक्रे वर्म तदस्मान्पातु विश्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। ते। तनूषु। अनह्यन्त। देवाः। द्युऽराजयः। देहिनः। इन्द्रः। यत्। चक्रे। वर्म। तत्। अस्मान्। पातु। विश्वतः ॥२०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(द्युराजयः) ज्ञान-द्युतियों द्वारा प्रदीप्त (ते) उन (देहिनः) देहधारी (देवाः) देवकोटि के विद्वानों तथा महात्माओं ने (तनूषु) देहों में (यत्) जो (वर्म) कवच अर्थात् रक्षासाधन (अनह्यन्त) बांध दिये हैं, तथा (इन्द्रः) पृथिवी के सम्राट् ने (यत्) जो (वर्म) कवच अर्थात् रक्षासाधन (चक्रे) कर रखे हैं, (तद्) वे वर्म अर्थात् रक्षासाधन (अस्मान्) हम सबकी (विश्वतः) सब ओर से और सब प्रकार से (पातु) रक्षा करें।
टिप्पणी -
[वर्म पातु—जात्येकवचन है। तनूषु=तनुएँ अर्थात् देहें तीन प्रकार की होती हैं—स्थूल सूक्ष्म तथा कारण देहें। देवों ने निज सदुपदेशों द्वारा ब्रह्मचर्य सादा भोजन परिश्रम सद्विचार पवित्राचरण आदि रक्षा के जो साधन निर्दिष्ट किये हैं, जिन्हें कि हमने निज देहों में मानो बांध रखना है। तभी हमारी रक्षा सम्भव है। इन्द्र ने जो रक्षासाधन उपस्थित किये हैं, वे बाह्य साधन हैं, और देवों ने जो रक्षा साधन निर्दिष्ट किये हैं, वे आभ्यन्तर साधन हैं, द्युराजयः= द्यु (ज्ञानद्युति)+राजृ दीप्तौ। देहिनः—मन्त्र में इस पद द्वारा देहधारी देवों का वर्णन हुआ है, यथा—मातृदेव, पितृदेव, आचार्यदेव अतिथिदेव आदि।]