अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
सूक्त - गार्ग्यः
देवता - नक्षत्राणि
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त
अन्नं॒ पूर्वा॑ रासतां मे अषा॒ढा ऊर्जं॑ दे॒व्युत्त॑रा॒ आ व॑हन्तु। अ॑भि॒जिन्मे॑ रासतां॒ पुण्य॑मे॒व श्रव॑णः॒ श्रवि॑ष्ठाः कुर्वतां सुपु॒ष्टिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअन्न॑म्। पूर्वा॑। रा॒स॒ता॒म्। मे॒। अ॒षा॒ढाः। ऊर्ज॑म्। दे॒वी। उत्ऽत॑रोः। आ। व॒ह॒न्तु॒। अ॒भि॒ऽजित्। मे॒। रा॒स॒ता॒म्। पुण्य॑म्। ए॒व। श्रव॑णः। श्रवि॑ष्ठाः। कु॒र्व॒ता॒म्। सु॒ऽपु॒ष्टिम् ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्नं पूर्वा रासतां मे अषाढा ऊर्जं देव्युत्तरा आ वहन्तु। अभिजिन्मे रासतां पुण्यमेव श्रवणः श्रविष्ठाः कुर्वतां सुपुष्टिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्नम्। पूर्वा। रासताम्। मे। अषाढाः। ऊर्जम्। देवी। उत्ऽतरोः। आ। वहन्तु। अभिऽजित्। मे। रासताम्। पुण्यम्। एव। श्रवणः। श्रविष्ठाः। कुर्वताम्। सुऽपुष्टिम् ॥७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(पूर्वाः) पहिला (अषाढाः) अषाढ़ाकाल (मे) मुझे (अन्नम्) अन्न (रासताम्) देवे। अर्थात् अषाढकाल के प्रथम-भाग में मुझे अन्नप्राप्ति हो। (देव्युत्तराः)१ बल तथा प्राणशक्ति देनेवाली पिछली अषाढ़ाएँ मुझे (ऊर्जम्) बल और प्राणशक्ति (आ वहन्तु) प्राप्त कराएँ। अर्थात् पूर्वाषाढा में अन्न सेवन करने से उत्तराषाढा में बल और प्राणशक्ति प्राप्त हो जाती है। (अभिजित्) अभिजित्-नक्षत्रकाल (मे) मुझे (पुण्यम्) पुण्यकर्म (एव) अवश्य (रासताम्) प्रदान करे। अर्थात् इस काल में नवान्न प्राप्त कर मैं नवान्नेष्टि तथा अन्नदान के पुण्यकर्म अवश्य करूँ। (श्रवणः) श्रवणा-नक्षत्रकाल और (श्रविष्ठाः) श्रविष्ठाओं का काल मेरी (सुपुष्टिम्) उत्तम पुष्टि (कुर्वताम्) करें।
टिप्पणी -
[रासताम्= अथवा अषाढाः रासन्ताम्। देव्युत्तराः= समस्तपद प्रतीत होता है— देव्यश्च ता उत्तराश्च। मन्त्र में पूर्वाषाढा में अन्नप्राप्ति, उत्तराषाढा में अन्न-सेवनजन्य बल और प्राणशक्ति की प्राप्ति, अभिजित्काल में अन्न के द्वारा किये गये पुण्यकर्मों, तथा श्रवण और श्रविष्ठाकाल में सुपुष्टि का वर्णन हुआ है। श्रविष्ठा को धनिष्ठा भी कहते हैं। श्रविष्ठा=श्रवः अन्ननाम (निघं० २.७), तथा धननाम (निघं० २.१०)। अन्नप्राप्ति द्वारा धन-प्राप्ति होती है।] [१. देवी= देवो दानात्।]