अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
आपो॒ न दे॒वीरुप॑ यन्ति हो॒त्रिय॑म॒व प॑श्यन्ति॒ वित॑तं॒ यथा॒ रजः॑। प्रा॒चैर्दे॒वासः॒ प्र ण॑यन्ति देव॒युं ब्र॑ह्म॒प्रियं॑ जोषयन्ते व॒रा इ॑व ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । न । दे॒वी: । उप॑ । य॒न्ति॒ । हो॒त्रिय॑म् । अ॒व: । प॒श्य॒न्ति॒ । विऽत॑तम् । यथा॑ । रज॑: ॥ प्रा॒चै: । दे॒वास॑: । प्र । न॒य॒न्ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् । ब्र॒ह्म॒ऽप्रिय॑म् । जो॒ष॒य॒न्ते॒ । व॒रा:ऽइ॑व ॥२५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आपो न देवीरुप यन्ति होत्रियमव पश्यन्ति विततं यथा रजः। प्राचैर्देवासः प्र णयन्ति देवयुं ब्रह्मप्रियं जोषयन्ते वरा इव ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । न । देवी: । उप । यन्ति । होत्रियम् । अव: । पश्यन्ति । विऽततम् । यथा । रज: ॥ प्राचै: । देवास: । प्र । नयन्ति । देवऽयुम् । ब्रह्मऽप्रियम् । जोषयन्ते । वरा:ऽइव ॥२५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(आपः न) जलों के सदृश विशुद्ध और पवित्र करनेवाली (देवीः) दिव्य वेदवाणियाँ, स्वाध्याकर्त्ता के (होत्रियम्) स्वाध्याय-यज्ञ में (उप यन्ति) स्वयं उपस्थित हो जाती है। तब स्वाध्याय करनेवाले (विततम्) वेदवाणियों में व्याप्त (अवः) रक्षक परमेश्वर का ही वर्णन (पश्यन्ति) स्पष्टतया देखते हैं। (यथा) जैसे कि सर्वसाधरण जन (विततं रजः) व्याप्त आकाश को स्पष्टतया (पश्यन्ति) देखते हैं। (देवयुम्) परमेश्वर देव की अभीप्ससावाले, (ब्रह्मप्रियम्) और ब्रह्म के प्यारे उपासक को (प्राचैः) आगे-आगे बढ़ने के उपायों द्वारा (देवासः) योगाचार्य देव (प्रणयन्ति) योगमार्ग पर आगे-आगे ले चलते, और उसके साथ प्रणय अर्थात् प्रेम करने लगते हैं, (जोषयन्ते) और उसकी मार्ग-प्रदर्शन द्वारा सेवा करते हैं। (इव) जैसे कि (वराः) नव-विवाहित पुरुष नव-विवाहित अपनी पत्नियों के साथ प्रणय करते, और वस्तुओं के प्रदान द्वारा उनकी सेवा करते हैं।
टिप्पणी -
[होत्रियम्; होत्रा=वाक् (निघं০ १.११); होत्रा=यज्ञ (निघं০ ३.१७)।]