अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
यो वै नैदा॑घं॒ नाम॒र्तुं वेद॑। ए॒ष वै नैदा॑घो॒ नाम॒र्तुर्यद॒जः पञ्चौ॑दनः। निरे॒वाप्रि॑यस्य॒ भ्रातृ॑व्यस्य॒ श्रियं॑ दहति॒ भव॑त्या॒त्मना॑। यो॒जं पञ्चौ॑दनं॒ दक्षि॑णाज्योतिषं॒ ददा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । वै । नैदा॑घम्। नाम॑ । ऋ॒तुम् । वेद॑ । ए॒ष: । वै । नैदा॑घ: । नाम॑ । ऋ॒तु: । यत् । अ॒ज: । पञ्च॑ऽओदन: । नि: । ए॒व । अप्रि॑यस्य । भ्रातृ॑व्यस्य । श्रिय॑म् । द॒ह॒ति॒ । भव॑ति । आ॒त्मना॑ । य: । अ॒जम् । पञ्च॑ऽओदनम् । दक्षि॑णाऽज्योतिषम् । ददा॑ति ॥५.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो वै नैदाघं नामर्तुं वेद। एष वै नैदाघो नामर्तुर्यदजः पञ्चौदनः। निरेवाप्रियस्य भ्रातृव्यस्य श्रियं दहति भवत्यात्मना। योजं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । वै । नैदाघम्। नाम । ऋतुम् । वेद । एष: । वै । नैदाघ: । नाम । ऋतु: । यत् । अज: । पञ्चऽओदन: । नि: । एव । अप्रियस्य । भ्रातृव्यस्य । श्रियम् । दहति । भवति । आत्मना । य: । अजम् । पञ्चऽओदनम् । दक्षिणाऽज्योतिषम् । ददाति ॥५.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 5; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(यः) जो (वै) वस्तुतः (नैवाघम् नाम ऋतुम्) निदाघ-सम्बन्धी ऋतु को उसके नामानुसार (वेद) जानता है, - (एष वै नैदाघः) यह है वस्तुतः नैदाघ (नाम ऋतुः) नाम वाली ऋतु (यद् अजः पञ्चौदनः) जोकि पांच इन्द्रिय भोगों-का-स्वामी, अजन्मा परमेश्वर है, - [अध्यात्म गुरु] (अप्रियस्य भ्रातृव्यस्य) अप्रिय भ्रातृव्य की (श्रियम्) शोभा सम्पत्ति को (निर्दहति) दग्ध कर देता है, (भवति आत्मना) और उस पर स्वयं प्रभुता को प्राप्त करता है, (यः) जोकि (पञ्चौदनम् अजम्) पांच-इन्द्रिभोगों के स्वामी, अजन्मा परमेश्वर को (दक्षिणाज्योतिषम्) दक्षिणा के फलस्वरूप पारमेश्वरीय ज्योति के रूप में गृहस्थ के प्रति (ददाति) प्रदान करता है।
टिप्पणी -
[निदाघ है ग्रीष्मकाल, जोकि नितरां दग्ध कर देता है, जिसमें कि ओषधियां वनस्पतियां सूख सी जाती हैं, और अति गर्मी के कारण प्राणी भी कमजोर पड़ जाते हैं। यह काल ज्येष्ठ-आषाढ़ मासों का होता है। “पञ्चौदन अज” को नैदाघ- ऋतुरूप कहा है, अर्थात् प्रत्यक्षीकृत परमेश्वर उपासक की अविद्या और तज्जन्य कामादि वासनाओं को ऐसे दग्ध कर देता है जैसे कि उग्र नैदाघ ऋतु दग्ध करती है। वैदिक साहित्य में देवों और असुरों को प्रजापति की सन्तानें कहा हैं, यथा “देवाश्चासुराश्चोभये प्राजापत्या अस्पर्धन्त” (श० ब्रा० कण्डि ६।८।१।१)। इनमें परस्पर स्पर्धा रही। इस कारण असुर, देवों के भाई होते हुए भी अप्रिय अर्थात् शत्रु हुए। और इनकी सन्तानों को भ्रातृव्य अर्थात् भाई की सन्तानें होते हुए भी शत्रु कहा। ये देव और असुर कोई मानुष जाति के नहीं, अपितु आध्यात्मिक “देवासुर संग्राम” के आध्यात्मिक तत्त्व हैं। इसी प्रकार “पञ्चौदन अज” भी अध्यात्मिक तत्त्व हैं। परमेश्वर द्वारा शक्ति को प्राप्त कर देवों ने आसुरी अर्थात् तामसिक तथा राजसिक विचारों और भावनाओं से उत्पन्न उग्र काम, क्रोध, लोभ आदि की श्री को दग्ध कर दिया, और स्वयं उन्होंने जीवन में प्रभुता पाई, जीवन में दिव्य विचारों, दिव्य भावनाओं और तज्जन्य उदारता, परोपकार, दिव्य कामनाओं का राज्य हुआ। यह वर्णन अध्यात्म-गुरु सम्बन्धी हुआ है, जोकि गृहस्थी का पञ्चौदनों के स्वामी अजन्मा परमेश्वर की दिव्य ज्योति का दर्शन करा देता है। मन्त्र २८ में वर का विवाह पुनर्भूः के साथ हुआ है। विवाह तो पुरोहित ही ने कराया, अतः मन्त्र २९ में उसे यथोचित दक्षिणा प्राप्त हुई, अतः दक्षिणा के फलरूप में पुरोहित ने विवाहित पुरुष को परमेश्वर के दर्शन करा दिये। विवाहित पुरुष भी परमेश्वर की दिव्य ज्योति को प्राप्त कर, निज जीवन में आसुरी श्री को दग्ध कर, दैवी श्री को प्राप्त करता है। ऐसी ही भावनाएं मन्त्र ३२ से ३६ में समझनी चाहियें]