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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुमारो यामायनः देवता - यमः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यं कु॑मार॒ नवं॒ रथ॑मच॒क्रं मन॒साकृ॑णोः । एके॑षं वि॒श्वत॒: प्राञ्च॒मप॑श्य॒न्नधि॑ तिष्ठसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । कु॒मा॒र॒ । नव॑म् । रथ॑म् । अ॒च॒क्रम् । मन॑सा । अकृ॑णोः । एक॑ऽईषम् । वि॒श्वतः॑ । प्राञ्च॑म् । अप॑श्यन् । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं कुमार नवं रथमचक्रं मनसाकृणोः । एकेषं विश्वत: प्राञ्चमपश्यन्नधि तिष्ठसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । कुमार । नवम् । रथम् । अचक्रम् । मनसा । अकृणोः । एकऽईषम् । विश्वतः । प्राञ्चम् । अपश्यन् । अधि । तिष्ठसि ॥ १०.१३५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 3

    शब्दार्थ -
    (कुमार) हे कुमार ! युवक ! (यं) जिस (नवम्) नवीन (रथम्) रथ को, मानव-देह को (मनसा) अपने मन से, अपने मनरूपी सारथि द्वारा (अचक्रम्) चक्र-रहित, मर्यादा-रहित (एक इषम्) केवलमात्र वासनामय, भोग एवं विलास का साधन तथा (विश्वत: प्राञ्चम्) सब ओर गति करनेवाला, उद्देश्य-विहीन (अकृणो:) बना लिया है तू उस पर (अपश्यन्) अन्धा होकर (अधितिष्ठसि) सवार हो रहा है ।

    भावार्थ - कुमार ! तुझे नवीन रथ प्रदान किया गया था अपने लक्ष्य पर पहुँचने के लिए, प्रभु-प्राप्ति के लिए, परन्तु तू अपने उद्देश्य को भूल गया । तू लक्ष्यविहीन होकर भटक गया । तूने भोगों की इच्छा से और अपने मन के प्रतिशय संकल्पों से अपने इस रथ को भोग-विलास का साधनमात्र बना लिया है । तेरा यह रथ केवल वासनामय बन गया । तू इस रथ पर चढ़ा हुआ है परन्तु अन्धा होकर । तू इस रथ को चला रहा है परन्तु तुझे यह पता नहीं कि तुझे जाना कहाँ है । यदि यही स्थिति रही तो यह रथ तुझे किसी गड्ढे में गिरा देगा; फिर तू रोएगा और पछताएगा परन्तु तेरे हाथ कुछ नहीं आएगा । युवक ! अभी समय है। सचेत और सावधान हो जा, सँभल जा । अपने मन को शिवसंकल्पों से युक्त कर अपने जीवन को वासनारहित बना और जीवन का लक्ष्य निश्चित कर । विवेकी बनकर रथ पर सवार हो, तू निश्चय ही अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाएगा ।

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