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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 16 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 16/ मन्त्र 7
प्र ते॒ नावं॒ न सम॑ने वच॒स्युवं॒ ब्रह्म॑णा यामि॒ सव॑नेषु॒ दाधृ॑षिः। कु॒विन्नो॑ अ॒स्य वच॑सो नि॒बोधि॑ष॒दिन्द्र॒मुत्सं॒ न वसु॑नः सिचामहे॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । नाव॑म् । न । सम॑ने । व॒च॒स्युव॑म् । ब्रह्म॑णा । या॒मि॒ । सव॑नेषु । दधृ॑षिः । कु॒वित् । नः॒ । अ॒स्य । वच॑सः । नि॒ऽबोधि॑षत् । इन्द्र॑म् । उत्स॑म् । न । वसु॑नः । सि॒चा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते नावं न समने वचस्युवं ब्रह्मणा यामि सवनेषु दाधृषिः। कुविन्नो अस्य वचसो निबोधिषदिन्द्रमुत्सं न वसुनः सिचामहे॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। नावम्। न। समने। वचस्युवम्। ब्रह्मणा। यामि। सवनेषु। दधृषिः। कुवित्। नः। अस्य। वचसः। निऽबोधिषत्। इन्द्रम्। उत्सम्। न। वसुनः। सिचामहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 16; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
विषय - आत्म-सिञ्चन
शब्दार्थ -
(सवनेषु) उपासना के अवसरों में (दाधृषिः) प्रतिपक्षियों, काम क्रोध आदि को दबाकर हे परमात्मन् ! मैं (समने नावं न) जीवन-संग्राम में नौका के समान (वचस्युवम्) वेद-वचनों के स्वामी (ते) तुझे ही (ब्रह्मणा) ज्ञान के द्वारा (प्रयामि) प्राप्त होता हॅू (नः अस्य वचसः) तू हमारे इस वचन को, प्रार्थना को (कुवित् निबोधिषत्) अवश्य सुनेगा । हम तो (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् तुझको (वसुन: उत्सम् न) ऐश्वर्य के कूप के समान जानकर (सिचामहे) निरन्तर अपनी आत्मा को सीचते रहें ।
भावार्थ - प्रभो ! हमने उपासना के मार्ग में बाधक बननेवाले काम, क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव कर दिया है । अब तो तेरे भक्तिरस में मग्न होकर जीवन-संग्राम से, संसार-सागर से पार होने के लिए तेरी नौका पर चढ़ बैठे है । हे ज्ञानाधिपते ! ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए हमने तुझे प्राप्त कर लिया है । प्रभो ! हम तेरी नौका पर चढ़े बैठे हैं अतः अब तो आपको हमारी प्रार्थना सुननी ही पड़ेगी । प्रभो ! तू ऐश्वर्यो का अक्षय स्रोत है। ऐसी कृपा कर कि हम तेरे आनन्दामृत से अपनी आत्मा को निरन्तर सींचते रहें, आप्लावित करते रहें, तेरे आनन्द-सागर में डुबकियाँ लगाते रहें ।
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