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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 86/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न स स्वो दक्षो॑ वरुण॒ ध्रुति॒: सा सुरा॑ म॒न्युर्वि॒भीद॑को॒ अचि॑त्तिः । अस्ति॒ ज्याया॒न्कनी॑यस उपा॒रे स्वप्न॑श्च॒नेदनृ॑तस्य प्रयो॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । सः । स्वः । दक्षः॑ । व॒रु॒ण॒ । ध्रुतिः॑ । सा । सुरा॑ । म॒न्युः । वि॒ऽभीद॑कः । अचि॑त्तिः । अस्ति॑ । ज्याया॑न् । कनी॑यसः । उ॒प॒ऽअ॒रे । स्वप्नः॑ । च॒न । इत् । अनृ॑तस्य । प्र॒ऽयो॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न स स्वो दक्षो वरुण ध्रुति: सा सुरा मन्युर्विभीदको अचित्तिः । अस्ति ज्यायान्कनीयस उपारे स्वप्नश्चनेदनृतस्य प्रयोता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । सः । स्वः । दक्षः । वरुण । ध्रुतिः । सा । सुरा । मन्युः । विऽभीदकः । अचित्तिः । अस्ति । ज्यायान् । कनीयसः । उपऽअरे । स्वप्नः । चन । इत् । अनृतस्य । प्रऽयोता ॥ ७.८६.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 86; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 6

    शब्दार्थ -
    (वरण) हे वरण करने योग्य परमात्मन् ! पाप की ओर प्रवृत्त होने में (न सः स्वः दक्षः) मेरा वह स्वकीय बल कारण नहीं है अपितु (सा) वह (सुरा) शराब (ध्रुतिः) वासना, संस्कार (मन्युः) क्रोध (विभीदक:) जुआ (अचित्ति:) अज्ञान और (स्वप्नश्चन इत्) आलस्य, प्रमाद ये सब (ज्यायान्) शक्तिशाली बनकर (कनीयसः) मुझ अल्पशक्तिवाले के (उपारे) समीप (अनृतस्य प्रयोता अस्ति) इनमें से प्रत्येक -पाप का, अनर्थ का प्रेरक है ।

    भावार्थ - मनुष्य पाप क्यों करता है ? पाप में प्रवृत्ति के अनेक कारण हो सकते हैं । प्रस्तुत मन्त्र में पाप के छह कारणों का निर्देश किया गया है । १. मनुष्य शराब के नशे में चूर होकर अनेक पाप कर डालता है । २. अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के वशीभूत होकर भी मनुष्य पाप में प्रवृत्त हो जाता है । ३. क्रोध में आकर भी मनुष्य पाप कर बैठता है। ४. जुए के व्यसन में फँसकर भी मनुष्य पाप की ओर प्रवृत्त हो जाता है । ५. अज्ञान और अविवेक के कारण भी मनुष्य पाप-पङ्क में फँस जाता है । ६. आलस्य और प्रमाद के कारण भी बहुत से पाप हो जाया करते हैं । ये सब दुर्गुण शक्तिशाली बनकर अल्पशक्ति मनुष्य को धर दबाते हैं। इन सबका तो कहना ही क्या, इनमें से एक-एक भी पाप एवं अनर्थ का कारण है, अतः इनसे बचना चाहिए ।

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