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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 565
ऋषिः - पवित्र आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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प꣣वि꣡त्रं꣢ ते꣣ वि꣡त꣢तं ब्रह्मणस्पते प्र꣣भु꣡र्गात्रा꣢꣯णि꣣ प꣡र्ये꣢षि वि꣣श्व꣡तः꣢ । अ꣡त꣢प्ततनू꣣र्न꣢꣫ तदा꣣मो꣡ अ꣢श्नुते शृ꣣ता꣢स꣣ इ꣡द्व꣢꣯हन्तः꣣ सं꣡ तदा꣢꣯शत ॥५६५॥

स्वर सहित पद पाठ

प꣣वि꣡त्र꣢म् । ते꣣ । वि꣡त꣢꣯तम् । वि । त꣣तम् । ब्रह्मणः । पते । प्रभुः꣢ । प्र꣣ । भुः꣢ । गा꣡त्रा꣢꣯णि । प꣡रि꣢꣯ । ए꣣षि । विश्व꣡तः꣢ । अ꣡त꣢꣯प्ततनूः । अ꣡त꣢꣯प्त । त꣣नूः । न꣢ । तत् । आ꣣मः꣢ । अ꣣श्नुते । शृता꣡सः꣢ । इत् । व꣡ह꣢꣯न्तः । सम् । तत् । आ꣣शत ॥५६५॥


स्वर रहित मन्त्र

पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वतः । अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तः सं तदाशत ॥५६५॥


स्वर रहित पद पाठ

पवित्रम् । ते । विततम् । वि । ततम् । ब्रह्मणः । पते । प्रभुः । प्र । भुः । गात्राणि । परि । एषि । विश्वतः । अतप्ततनूः । अतप्त । तनूः । न । तत् । आमः । अश्नुते । शृतासः । इत् । वहन्तः । सम् । तत् । आशत ॥५६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 565
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 9;
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शब्दार्थ -
(ब्रह्मणस्पते) हे ज्ञान के स्वामिन् परमेश्वर ! (ते-पवित्रं ) तेरा पवित्र प्रकाश, ज्ञान-ज्योति ( विततम् ) सर्वत्र व्याप्त है (प्रभुः) उस प्रकाश से समर्थ आप (विश्वतः गात्राणि परि एषि) सभी शरीरों में व्याप्त हैं, ओत-प्रोत हैं । यद्यपि आप सर्वत्र व्यापक हैं, सभी शरीरों में निवास करते हैं परन्तु (अतप्ततनूः) यम-नियम आदि तप-शून्य (आमः) संसार के भोगों में लिप्त, कच्चा मनुष्य (तत्) तेरे उस पवित्र ज्ञानमय, प्रकाशमय स्वरूप को (न, अश्नुते ) प्राप्त नहीं करता। ( शृतास :) ब्रह्मचर्य और योगाभ्यास की अग्नि में परिपक्व विद्वान् (इत्) ही ( तत् वहन्तः) उस आनन्द को धारण करते हुए (सम्, आशत) भली प्रकार प्राप्त करते हैं ।

भावार्थ - १. ईश्वर सर्वत्र व्यापक है । उसका प्रकाश चहुँ ओर फैल रहा है। उसकी ज्योति से ही सूर्य-चन्द्र आदि द्योतित हो रहे हैं । २. अपनी महान् सामर्थ्य से प्रभु प्रत्येक शरीर में व्याप्त है । ३. ईश्वर प्रत्येक शरीर में है, उसका प्रकाश सर्वत्र फैला हुआ है तो वह मिलता क्यों नहीं ? वेद कहता है जो तपस्यारहित हैं, जो ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना नहीं करते, जो यम-नियम आदि की भट्टी में से नहीं गुजरते, जो सांसारिक विषय-भोगों में लिप्त रहते हैं, ऐसे व्यक्ति ईश्वर को नहीं पा सकते । ४. जो लोग योगाभ्यास में रत रहते हैं, ब्रह्मचर्यादि का पालन करते हैं, वे ही उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को अपने हृदय में विराजमान देखते हैं ।

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