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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
अ॒ग्निर्भूम्या॒मोष॑धीष्व॒ग्निमापो॑ बिभ्रत्य॒ग्निरश्म॑सु। अ॒ग्निर॒न्तः पुरु॑षेषु॒ गोष्वश्वे॑ष्व॒ग्नयः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । भूम्या॑म् । ओष॑धीषु । अ॒ग्निम् । आप॑: । बि॒भ्र॒ति॒ । अ॒ग्नि: । अश्म॑ऽसु । अ॒ग्नि: । अ॒न्त: । पुरु॑षेषु । गोषु॑ । अश्वे॑षु । अ॒ग्नय॑: ॥१.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु। अग्निरन्तः पुरुषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । भूम्याम् । ओषधीषु । अग्निम् । आप: । बिभ्रति । अग्नि: । अश्मऽसु । अग्नि: । अन्त: । पुरुषेषु । गोषु । अश्वेषु । अग्नय: ॥१.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
Bhajan -
आज का वैदिक भजन 🙏 1084
ओ३म् अ॒ग्निर्भूम्या॒मोष॑धीष्व॒ग्निमापो॑ बिभ्रत्य॒ग्निरश्म॑सु।
अ॒ग्निर॒न्तः पुरु॑षेषु॒ गोष्वश्वे॑ष्व॒ग्नयः॑ ॥
ओ३म् अ॒ग्निर्दि॒व आ त॑पत्य॒ग्नेर्दे॒वस्यो॒र्वन्तरि॑क्षम्।
अ॒ग्निं मर्ता॑स इन्धते हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म् ॥
अथर्ववेद 12/1/19-20
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने,
वाह रे प्रभु! अग्नि स्वरूप,
विश्व किया है वश में,
विश्व में लग गए बहने,
चहुंदिशी अमृत झरने
रिक्त नहीं है कोई स्थान
जिसमें तू ना हो विद्यमान
फिर क्यों हम तम से भटके
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने
सूर्य चन्द्र तारों में अग्नि है,
बिजली अंगारों में अग्नि है,
सरिताएँ सरोवर में,
भूमि औषधि पाषाणों में,
गायों अश्वों मनुष्यों में अग्नि है,
द्युलोक अन्तरिक्ष में,
भौतिक तत्व में अग्नि है,
पर प्रज्वलित कर न सके,
केवल मानव ही अग्नि को,
प्रज्वलित नित कर सके,
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने
आत्मा में अग्नि प्रज्वलित कर,
तम से प्रकाश में जा उतर,
व्यर्थ भटके ना हम,
आत्मा के संरक्षण में इन्द्रियाँ,
बन जाती हैं ज्योतिप्रदा,
उन्नति पाए हम,
हर जन्मधारी के अन्दर प्रकाशक,
अग्नि रहती है विद्यमान,
केवल विश्वामित्र मानव ही,
मैत्री का रखते हैं ध्यान,
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने
प्रज्वलित करें प्रसुप्ताग्नि
हम बने संस्कारित सुललित
मंथन करें स्वयं,
जैसे समिधाओं को रगड़कर,
करते अग्नि प्रज्वलित सत्वर,
छिपी अग्नि पाते हम,
प्रवण को उत्तरारणि बनाकर
आत्मा को अधरारणि
ऐसे छिपे इस अग्निदेव का
कर ले प्रकटिकरण
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने
पहले से जो अग्निमन्थन कर चुके,
ऐसे विद्वान् है अग्निवित्
उनसे पाओ सत्य ज्ञान,
सम्पदा अध्यात्म की पालो तुम,
उद्यत हैं देने को विप्रजन,
उनमें अग्नि ना है कम,
अन्तरण करते अग्नि से अग्नि,
कर देते राह सुगम,
जिनके हृदय अग्नि से आप्लावित,
करो उनका पूजन,
पाया किससे? इस विश्व में,
आग्नेय तत्व हमने
वाह रे प्रभु! अग्नि स्वरूप,
विश्व किया है वश में
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- २०.६.२०१२ सायं ६.५५
राग :- राग भूप+शिवरंजनी
राग का गायन समय रात्रि का तृतीय प्रहर, ताल कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- आओ अग्नि से अग्नि जलाएं
*तर्ज :- *
703-0104
प्रसुप्त = छिपा हुआ
प्रणव = ओ३म्
उत्तरारणि = ऊपर की समिधा
अधरारणि = नीचे की समिधा
आप्लावित = भीगा हुआ
Vyakhya -
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
आओ अग्नि से अग्नि जलाएं
इस ब्रह्मांड में अग्नि का बहुत महत्व है।
अग्नि ऊर्ध्वगामी है, अग्नि प्रकाश है, अग्नि तेज स्वरूप है, अग्नि में आत्मसात् करने की क्षमता है, अग्नि गति-विस्तार है, अग्नि संघर्ष है और परोपकार की द्योतक है। यह सभी गुण परमात्मा में ओत- प्रोत हैं।इसलिए परमात्मा को वेदों में अग्नि स्वरूप का सम्मान दिया है। ऋग्वेद का पहला मन्त्र ही अग्नि से आरम्भ होता है। यह अग्नि तत्व परमात्मा ने ही प्रदान किया है।
भौतिक और आध्यात्मिक जगत में अग्नि का अपार महत्व है।
इस मन्त्र में भी अग्नि का विविध रूप से महत्व दर्शाया है।
जल,वायु,अग्नि,पृथ्वी और आकाश इन पांच तत्वों से जगत का प्रत्येक पदार्थ बना है, मात्रा के अनुपात में यह भिन्न भिन्न हो सकता है।किसी पदार्थ में पार्थिव तत्व प्रधान है ,किसी में जलीय ,किसी में आग्नेय, किसी में वायव्य, और किसी में आकाश तत्व। इन तत्वों के गुण मनुष्य के आत्मा बुद्धि एवं इंद्रियों में भी विद्यमान हैं।
इन पांच तत्वों में अग्नि अपना विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अग्नि के बिना प्राणियों का जीवन धारण भी संभव नहीं है। मनुष्य को जीवन की सच्ची राह पर चलने के लिए भौतिक प्रकाश की भी आवश्यकता होती है।और नैतिक या आध्यात्मिक प्रकाश की भी।
यदि आज सूर्य विद्युत चंद्र किसी का भी प्रकाश उसे उपलब्ध ना हो तो वह अंधकार में पडा़ रहे, पशु पक्षियों जैसा साधारण जीवन चलाना भी उसके लिए दुष्कर हो जाए, फिर आध्यात्मिक उन्नति जीवन का तो कहना ही क्या।
मनुष्य में तो उमंग उत्साह साहस उद्बोधन जागरूकता विचार बल महत्वकांक्षा वीरता अग्रगामिता आशावाद शत्रु- पराजय संघर्ष शक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी विजयी होने की अदम्य शूरता यशस्विता आदि हैं।
इसलिए वैदिक उपासक बार-बार तेज वीर्य बल ओज साहस वर्चस्व आदि की प्रार्थना करता है।
सूर्य, चंद्र ,तारे ,बिजली ,अंगारे ,सरिताएं सरोवर, भूमि, औषधि ,पाषाण, गायों, अश्वों, मनुष्यों में अग्नि व्याप्त है ।अग्नि तीनों लोकों में भी व्याप्त है।
भौतिक तत्वों में अग्नि है, पर वो उन्हें प्रज्वलित नहीं कर सकते, केवल मानव ही अग्नि को प्रज्वलित कर सकता है। उसमें प्रज्वलित करने की क्षमता है ।
इसलिए वेद में उपदेश दिया है कि इस अपनी आत्मा को अग्नि से प्रज्वलित कर ताकि इसके सारे गुण जो ऊपर दर्शाएं हैं वह सब आत्मा ग्रहण कर ले और तम दूर करकेअंधकार दूर करके, पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाए ।उसके लिए दर बदर भटकने की ज़रूरत ना पड़े ।आत्मा के अग्नि स्वरूप होने से आत्मा राजा का काम करता है और और इन्द्रियां उसकी प्रजा के रूप में।
अगर राजा होनहार होगा तो वह अपनी प्रजा को भी इन गुणों से परिपूर्ण करेगा।
ऋग्वेद का एक मन्त्र दर्शा रहा है:
जन्मञ्जन्मन् निहितो.....ऋ॰३.१.२१
प्रत्येक जन्मधारी के अंदर प्रकाशक अग्नि निहित है, पर वह प्रसुप्त पड़ी हुई है सोई हुई है। इसे अपने अंतरात्मा में प्रज्वलित वही करते हैं जो 'विश्वामित्र' हैं। जिनमें सद्वस्तुओं से मैत्री स्थापित करने की उमंग है ।मनुष्य को चाहिए कि उस अग्नि को अपने अंदर प्रदीप्त करके उससे प्राप्त होने वाली सुमति को और उसके भद्र सौमनस्य को प्राप्त करे।
पर उस प्रसुप्त अग्नि को प्रदीप्त करना आसान नहीं है उसे लगन के साथ मंथन करना पड़ता है। जैसे अधरारणि और उत्तरारणि को वेग पूर्वक रगड़कर यज्ञ में अग्नि प्रज्वलित करते हैं, वैसे ही अपने आत्मा को अधारारणि बनाकर तथा प्रवण को, अपने इष्ट देव परमात्मा को,उत्तरारणि बनाकर छिपे हुए परम अग्निदेव को प्रकट किया जाता है। इसलिए परमात्मा का प्रकाश पाने के लिए यह रगड़ आवश्यक है। यह संघर्ष आवश्यक है। यह साधना आवश्यक है।
विद्वान योगी जन सन्यासी जन अध्यापन संपदा के धनी जन अपने अंदर इस अग्नि को प्रदीप्त करते हैं, फिर अपने शिष्यों को वह अग्नि प्रदान करते हैं। 'अग्निनाग्नि: समिध्यते"(ऋ॰१.१२.६) अग्नि से अग्नि का अंतरण होता है।
इस अग्नि को पाने के लिए शिष्य अपने विद्वान गुरुजनों का पूजन करते हैं,सेवा करते हैं। और अपने ह्रदय में उस अग्नि को आप्लावित करते हैं।
याद रहे की अग्नि के साथ सोम की आवश्यकता भी है। क्योंकि यदि अग्नि का प्रयोग सही रूप में ना किया जाए तो यह घातक भी बन सकता है।
इसलिए अग्नि के साथ सोम का होना भी आवश्यक है। जैसे सूर्य अग्नि के साथ सोम चंद्रमा संसार को सुख पहुंचा रहे हैं। विश्व युद्ध या संग्राम ना हो अपितु शान्ति और सौहार्द्र की दिशा में अग्रसर होकर पूरे विश्व को अपना मित्र बनाएं। शत्रु ना बनाएं।वर्तमान स्थिति इसी प्रकार की बन रही है। एक देश अपना वर्चस्व दिखाने के लिए दूसरे देशों को दबा रहा है। और अग्नि का दुरुपयोग करके संसार को विनाश के कगार पर ले आया है।
अग्नि और सोम यदि एक दूसरे के पूरक बनें,तो विश्व, एक आदर्श विश्व बन सकता है।