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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - आकूतिः छन्दः - पञ्चपदा विराडतिजगती सूक्तम् - आकूति सूक्त

    आकू॑तिं दे॒वीं सु॒भगां॑ पु॒रो द॑धे चि॒त्तस्य॑ मा॒ता सु॒हवा॑ नो अस्तु। यामा॒शामेमि॒ केव॑ली॒ सा मे॑ अस्तु वि॒देय॑मेनां॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽकू॑तिम्। दे॒वीम्। सु॒ऽभगा॑म्। पु॒रः। द॒धे॒। चि॒त्तस्य॑। मा॒ता।सु॒ऽहवा॑। नः॒। अ॒स्तु॒। याम्। आ॒ऽशाम्। ए॒मि॒। केव॑ली। सा। मे॒। अ॒स्तु॒। विदे॑यम्। ए॒ना॒म्। मन॑सि। प्रऽवि॑ष्टाम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आकूतिं देवीं सुभगां पुरो दधे चित्तस्य माता सुहवा नो अस्तु। यामाशामेमि केवली सा मे अस्तु विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽकूतिम्। देवीम्। सुऽभगाम्। पुरः। दधे। चित्तस्य। माता।सुऽहवा। नः। अस्तु। याम्। आऽशाम्। एमि। केवली। सा। मे। अस्तु। विदेयम्। एनाम्। मनसि। प्रऽविष्टाम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 4; मन्त्र » 2

    Bhajan -

    आज का वैदिक भजन 🙏 1113 
    ओ३म् आकू॑तिं दे॒वीं सु॒भगां॑ पु॒रो द॑धे चि॒त्तस्य॑ मा॒ता सु॒हवा॑ नो अस्तु।
    यामा॒शामेमि॒ केव॑ली॒ सा मे॑ अस्तु वि॒देय॑मेनां॒ मन॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम् ॥
    अथर्ववेद - काण्ड 19, सूक्त 4, मन्त्र 2

    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 
    वशीभूत राग-भय से  
    आशय छुपा हुआ है 
    जाना नहीं जीवन का 

    जैसा असत्य-भाषण 
    वैसा बना है चिन्तन 
    कलुषित मनस्-उद्योग में 
    कृत्रिम बना जीवन-क्रम 
    अभिप्राय सत्य-सत्त्व का 
    छूटा ही जा रहा है 
    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 

    जब छूटी ये अवस्था 
    इस आत्म-वञ्चना की
    दुर्भगा की वृत्ति त्यागी 
    वृत्ति जगी सुभगा की 
    अब लज्जा-भय भी छूटा 
    सत्य-ज्ञान समा रहा है 
    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 

    फिर आज से बना दूँ 
    सच्चा सुभग ये जीवन 
    सत्य-ज्ञान होवे उद्बुद्ध 
    मानस का हो उद्दीपन 
    आकूति चित्त की माता 
    उसे मन पुकार रहा है 
    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 

    है वाणी वैखरी कर 
    तू पुकार आकूति की 
    मनोराज्य का दुराशय
    कर दूर ऋजु विधि से 
    आशय बना सङ्कल्पित 
    जीवन जगा रहा है 
    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 

    अब कोई भी शुभेच्छा 
    चलूँ सही दिशा में लेकर 
    शुद्ध रूप होवे  जिसका 
    हो प्रकाश का अन्वेषण 
    तब गौण इच्छाओं का 
    आधार कहाँ रहा है ? 
    जाना नहीं जीवन का 
    अभिप्राय मेरा क्या है 
    वशीभूत राग-भय से  
    आशय छुपा हुआ है 
    जाना नहीं जीवन का 

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :-      12.11.2021      12.40 pm
    राग :- पीलू
    गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
                      
    शीर्षक :- शुभ एवं बलवान संकल्प 🎧686वां भजन
    *तर्ज :- *
    718-0119  

    अभिप्राय = आशय लक्ष्य उद्देश्य 
    आशय = अभिप्राय उद्देश्य इच्छा 
    कलुषित = मलिन गंदा 
    उद्योग = व्यवसाय 
    वंचना = ठगी धूर्तता 
    सुभगा = उत्तम ऐश्वर्य विषयक 
    दुर्भगा = आसुरी वृत्ति 
    सुभग = सौभाग्यशाली 
    उद्बुद्ध = पूर्ण विकसित 
    उद्दीपन = प्रकाश करना 
    आकूति = उद्देश्य अभिप्राय इच्छा 
    वैखरी = अंतःकरण से निकली 
    दुराशय = बुरे अभिप्राय 
    ऋजु = सरल सुगम 
    अन्वेषण = खोज 
    गौण = कम महत्व का, अधीनस्थ
     

    Vyakhya -

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    शुभ एवं बलवान संकल्प

    बहुत बार मुझे स्वयं ज्ञात नहीं होता कि मेरा अभिप्राय क्या है। मैं अपने आन्तरिक अभिप्राय को स्पष्ट सामने लाने में समर्थ नहीं होता। असत्य भाषण, असत्य चिन्तन करते नाना भयों या रागों के वशीभूत होते हुए मेरा मानसिक व्यापार इतना कलुषित और कृत्रिम हो गया है कि मैं उसकी गड़बड़ में अपने वास्तविक अभिप्राय को ही खो देता हूं।  अपने सच्चे आशय को दूसरों से छुपाते- छुपाते वह मुझसे भी छुप जाता है। परन्तु मैं अब इस आत्मवंचना की अवस्था को त्यागता हूं और आज से सदा अपनी 'आकूति' यानी अभिप्राय को स्पष्ट सामने लाकर रखूंगा। मन की इच्छाएं अभिलाषाएं जब पूरी होती हैं,
    दुर्भगा तथा आसुरी होती हैं। तभी हम प्रायः इन्हें छुपाते हैं जब यह सुभगा और देवी होती हैं, तब उत्तम ऐश्वर्य की इच्छा या सबके भले की कल्याणी इच्छा होती है। तब भी यदि हम इन्हें छुपाते हैं तो केवल निर्बलता के कारण या किन्हीं झूठे भय वह लज्जा के कारण ही ऐसा करते हैं। अतः जब मेरी 'आकूति' सुभगा और देवी है तो मैं क्यों डरूं? क्यों छिपूं? मैं तो अब इसे सामने स्पष्ट रखता हूं। 
    मैं आज से अपने जीवन को इतना सच्चा मानता हूं अपने मानसिक क्षेत्र को सत्य-ज्ञान के प्रकाश से ऐसा प्रकाशित रखता हूं कि अब मैं मन में घुसी हुई अपने इस अभिप्राय देवता को हे प्रभु! जब चाहूं तब तुरन्त जान सकूं, पा सकू़ं, निकाल सकूं , मन (अंतःकरण) का जो निचला चित्त नामक भाग है, जहां की विचार अभिप्राय सुप्त रूप में पड़े रहते हैं या यूं कहना चाहिए कि जो चित्त इनका बना हुआ है (जिस चित्त की माता, अभिप्राय है) उस स्थान से जब मैं चाहूं तभी अपने अभिप्राय को पुकार कर ला सकूं। आकूति मेरे लिए सदा सुहवा हो, यानी कि सुगमता से पुकारने योग्य हो। जब आवश्यकता हो तब मैं उसे पुकार कर वैखरी वाणी के रूप में लाकर खड़ा कर सकूं।  
    हे प्रभु !अब मेरे मनोराज्य की सब अव्यवस्था गड़बड़ दूर कर दो। मैं जब जिस आशा वह इच्छा को लेकर चलूं जिस दिशा में चलूं, तब वही अकेली आशा मेरे सामने रहे शुद्ध -रूप में वही प्रकाशमान रहे और सब गौण विचार  गड़बड़ ना मचाते हुए यथा स्थान पीछे रहें। 
    यदि ऐसी अवस्था स्थापित हो जाएगी तो मेरी सब आकूतियां (अभिप्राय) संकल्प शक्ति बन जाएंगी और वे पूर्ण व सफल हुआ करेंगीं।

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